पच्चीसवां प्रेम पत्र -आभा श्रीवास्तव



एक ज़माना था जब चिट्ठियों की आवाजाही या आदान प्रदान हरकारों या फ़िर कबूतरों के ज़रिए होता था। बदलते समय के साथ इनकी जगह डाकघरों ने डाकियों के ज़रिए ले ली। समय और आगे बढ़ा तो ईमेल और व्हाट्सएप जैसे दर्जनों साधनों के सुगमता से उपलब्ध हो जाने की वजह से ज़रूरत ना समझे जाने पर सड़कों के किनारे बने लाल रंग के तथाकथित लेटरबॉक्स यानी कि लाल डिब्बे भी सरकार द्वारा लोप कर दिए गए।  


इन सब आड़े-तिरछे साधनों-संसाधनों के बीच गुटरगूं करते प्रेमी जोड़ों की रूमानियत भरी चिट्ठियों की बात तो होने से रह ही गई। जी हाँ... मैं बात कर रहा हूँ उन इत्र की भीनी-भीनी खुशबू में डूबी गिले-शिकवों और मनुहार-दुलार से भरी मीठी-मीठी चिट्ठियों की जिन्हें प्रेम पत्र या लव लैटर कहा जाता है। 


दोस्तों...आज प्रेम में डूबे इन प्रेम पत्रों की बात इसलिए कि आज मैं जिस कहानी संग्रह की यहाँ बात करने जा रहा हूँ उसे 'पच्चीसवां प्रेम पत्र' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध लेखिका आभा श्रीवास्तव ने। 


इसी संकलन की एक कहानी में जहाँ एक तरफ़ बरसों बाद मिलीं तीन सहेलियाँ एक साथ घूमने निकलती हैं तो उनके साथ कुछ ऐसा घटता है जिससे पुराने रहस्य एक के बाद एक कर के खुलने लगते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में अपनी पत्नी को खो चुके नरेन की मुलाकात अपनी बच्ची की टीचर, अलका से होती है जो कभी स्वयं उसकी चाहत रह चुकी है और अब अपने माता-पिता के गुज़र जाने के बाद अकेले ही जीवन व्यतीत कर रही है। 


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ अपनी बहन के देवर, विवेक द्वारा रिश्ते के लिए नकार दिए जाने के बरसों बाद तनुजा की मुलाक़ात एक बार फ़िर उस से होती है मगर तब तक.. 


तो वहीं एक अन्य कहानी में शादी के 6 महीनों बाद वंशिका के पति को दो दिनों के लिए शहर से बाहर जाना पड़ता है। तो ऐसे में वंशिका इन दो दिनों को अपनी मर्ज़ी से जीने का प्लान बना एक बुक कैफ़े में घूमने के लिए जाती है तो है मगर..


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में मोहित ये सोच कर परेशान है कि उसकी लन्दन से आई प्रेमिका, सिल्विया को उसकी कट्टर हिन्दू माँ स्वीकार करेगी भी या नहीं। अब देखना ये है कि क्या मोहित अपनी माँ से इस बारे में बात कर भी पाता है या नहीं। एक अन्य कहानी में मधुर स्वर की स्वामिनी चैताली को उसके गहरे सांवले रंग और अनाकर्षक चेहरे मोहरे की वजह से उसका प्रेमी सुबोध उसे भोगने के बाद ठुकरा देता है।


एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ अपने काले रंग की वजह से कई बार विवाह के लिए नकारी जा चुकी श्यामली की मुलाकात अपने से कम उम्र के रॉबिन से होती है जो विदेशी माँ और भारतीय पिता की संतान है। कुछ मुलाकातों के बाद रॉबिन, श्यामली के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखता है जिससे वह इनकार नहीं कर पाती मगर किसी को क्या पता था कि उसकी किस्मत में क्या लिखा है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में घर वालों के विरोध के चलते कहानी की नायिका का विवाह उसके प्रेमी दिव्यांश के साथ नहीं बल्कि स्वप्निल के साथ कर, दिव्यांश के लिखे सभी प्रेम पत्रों को उसकी माँ द्वारा जला तो दिया जाता है मगर..


एक अन्य कहानी में कहानी की मुख्य किरदारा को अचानक बरसों बाद एक अनजान नम्बर से कॉल आता है तो उसकी उस 'कोयल दी' को ले कर यादें ताज़ा हो जाती हैं जिन्हें वह अपनी बहन और उसके प्रेमी, वासु को बड़ा भाई तो कहती थी मगर..


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ प्रेम विवाह के बावजूद भी जब उसके पति अनीश की ज़िन्दगी में सेजल आ जाती है तो टूट कर बिखर चुकी तारा अपनी सहेली कनिका की सलाह पर वह अपना शहर छोड़ देती है। नए शहर में उसकी मुलाक़ात इंडियन आर्मी में मेजर सुशांत से होती है कि तभी..

तो वहीं एक अन्य कहानी में पैंतीस वर्षों के सफ़ल वैवाहिक जीवन में बाद अब वैधव्य झेल रही कामाक्षी की बेटी मेनका, जिसका अपने पति से तलाक हो चुका है, अपनी माँ को बताती है कि वह उस तलाकशुदा राघव से विवाह करना चाहती है जिसका पहले भी दो बार विवाह हो चुका है और उसकी एक बेटी भी है। सहमत ना होने के बावजूद भी वह मेनका के साथ राघव से मिलने उसके घर जाती है। जहाँ उसकी मुलाक़ात..



इसी संकलन की एक अन्य कहानी में पढ़ाई और नौकरी के चक्कर में घर से अलग मुम्बई में सुदीप के साथ लिवइन में रहते हुए दिव्या को एक दिन उसकी बेवफाई का पता चलता है तो वो टूट जाती है। इस बीच बहन के देहांत के बाद विधुर हो चुके जीजा रितुकांत के साथ उसका ब्याह तय कर दिया जाता है मगर क्या इस विवाह से दिव्या के मन की इच्छाएँ या खुशियाँ पूरी हो पाएँगी? 


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में एक तरफ़ से खूबसूरत चेहरे और दूसरी तरफ़ से जले चेहरे वाली प्रसिद्ध लेखिका संध्या चौधरी की मुलाकात एक कार्यक्रम के दौरान अपनी एक प्रशंसिका ईवा से होती है जो वहाँ अपने पति दिवाकर के साथ आई हुई है। वहाँ संध्या उन्हें एक मनघड़ंत कहानी सुना कुटिल मुद्रा में उनसे विदा लेती है मगर तब तक..


एक अन्य कहानी में जहाँ इंडियन म्यूज़िक में मास्टर्स की डिग्री वाली साधारण चेहरे-मोहरे की जवा की शादी ऊँची डिग्री और बढ़िया नौकरी वाले श्यामल से हो तो जाती है मगर क्या वह कभी जवा की छोटी-छोटी इच्छाओं को समझ पाया? तो वहीं एक अन्य कहानी में कहानी का मुख्य किरदार नेहा को उस दीपिका के बारे में बताता है जिससे उसकी मुलाक़ात रेडियो स्टेशन पर रिकार्डिंग के दौरान हुई थी। लगातार तीन सालों तक कई मुलाक़ातों के बाद अचानक नेहा उससे मिलने बंद कर अपना मोबाइल भी स्विच ऑफ कर देती है। उसके बाद नौकरी इत्यादि के चक्कर में वह भी शहर छोड़ देता है। उसी का हालचाल पता करने के लिए वे दोनों वापिस उसके शहर जाते हैं मगर तब तक कहानी कुछ और ही रूप ले चुकी होती है।


एक अन्य कहानी में दिखावे से दूर रहने वाली 27 वर्षीय पार्वती के सीए की डिग्री हासिल करने के बाद उसकी माँ को बेटी की शादी की चिंता सताती है। जिसके बाद मेट्रीमोनियल साइट्स को खंगाला जाना शुरू होता है। वहीं पर पार्वती की मुलाक़ात रुद्र से होती है मगर वह चाहती है कि रुद्र उसे बिना मेकअप के जस का तस स्वीकार करे। तो वहीं एक अन्य कहानी में अपने घर से दूर महानगर में अकेले रह कर नौकरी कर रही मधुरा की मुलाक़ात उसी की बिल्डिंग के एक अन्य ऑफिस में नौकरी कर रहे शिव से उस वक्त होती है जब हल्की-हल्की बारिश हो रही होती है। शिव, मधुरा को भीगने से बचने के लिए अपना छाता ऑफर करता है। जिसके बाद चाय के दौरान दोनों में दोस्ती हो जाती है। फ़िर मिलने का वादा लॅ जब वह विदा लेकर बस में बैठती है तो उसके बैग में   पड़े सूखे छाते को देख वह मुस्कुरा उठती है। 


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में नैनीताल में घूमते वक्त कहानी के मुख्य किरदार की मुलाक़ात टीवी चैनल में पत्रकार बन चुकी उस केतकी से होती है जिससे सगाई के बाद उसने प्रिया के चक्कर में रिश्ता तोड़ दिया। अब देखना ये है कि प्रिया से भी रिश्ता टूट जाने के बाद केतकी का उसके जीवन में आगमन क्या रंग लाता है। एक अन्य कहानी में फेशियल पक्षाघात की मार झेल रहे कहानी के मुख्य किरदार, जो कि अधेड़ उम्र का है, की ट्रेन के सफ़र के दौरान मुलाक़ात उस गौरी से होती है जिसके पिता के पैसे के बल पर वह मेडिकल की पढ़ाई कर रहा था और उसने उसे भोगने के बाद उसके उसके साधारण रंग रूप की वजह से ठुकरा दिया था। 



इस संकलन को पढ़ते वक्त मुझे इसमें कुछ तथ्यात्मक ग़लतियाँ भी दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर 92 में लिखा दिखाई दिया कि..


'लेकिन फ़िर मेघना की जोड़ी कैसे टूट गई? पता नहीं मेनका का दूसरा विवाह हो सकेगा या नहीं'


यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि कहानी के हिसाब से लड़की का नाम 'मेघना' नहीं बल्कि 'मेनका' है।



पेज नंबर 111 की अंतिम पंक्ति में और पेज नंबर 112 की शुरुआती पंक्ति में दिखा दिखाई दिया कि..


'तुम मुझे किसके लिए लेने आए हो श्यामल? माँ के लिए, घर की पुताई के लिए या फिर अपने लिए? जवा का स्वर कड़वा और कड़ा था'


' तब सुन लो कि नील और मेरे बारे में तुमने जो कुछ भी सुना है वो बिल्कुल सच है। ऐसा क्यों हुआ, शायद तुम जैसा पत्थरदिल समझ ही ना सके लेकिन मैं बताऊँगी। मेरा पहला  प्यार, पहला समर्पण और पहला सम्भोग, सब कुछ तो तुम थे श्यामल लेकिन तुमने मुझे बस भोग्या समझा।'


यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि कहानी में बिना श्यामल के कोई आरोप लगाए जवा का उसे, उसके और नील के रिश्ते के बारे में सफ़ाई देने का कोई कारण नहीं बनता था। अगर यही आरोप कुछ और बहस भरे संवादों के बाद शयामल द्वारा लगाया जाता तो बेहतर होता। 


पेज नंबर 113 में लिखा दिखाई दिया कि..


'"जानती हो दीपिका, आज मुझे नेहा की याद आ गई। उससे अलग हुए भी तीन बरस बीत गए," कहानी भूलकर मैं नेहा को याद करने लगा।"


" क्या तुम उससे प्रेम करते थे?" दीपिका पूछ बैठी।' 


यहाँ कहानी का मुख्य किरदार दीपिका को नेहा के बारे में बताता है जबकि कुछ व्यक्तियों के बाद नेहा कहती दिख रही है कि..


'मुझे कुछ बताओ उसके बारे में। आज पहली बार तुम्हारे मुँह से ये नाम सुन रही हूँ। उसने आग्रह किया।'


ऐसा कैसे संभव हो सकता है? 



इस संकलन को पढ़ते वक्त ज़रूरी जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। इसके अतिरिक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमियों के साथ-साथ वर्तनी की त्रुटियाँ भी दिखाई दीं। जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 14 की पहली पंक्ति में दिखा दिखाई दिया कि..


'रोकते रोकते भी दबे स्वर में हम दोनों सखियाँ खिलखिला उठे'


यहाँ 'खिलखिला उठे' की जगह पर 'खिलखिला उठीं' आएगा। 


पेज नंबर 36 में लिखा दिखाई दिया कि..


'तुम्हारी अमानत लौटने जो भूलवश मेरे पास रह गई थी' 


यहाँ 'तुम्हारी अमानत लौटने' की जगह पर 'तुम्हारी अमानत लौटाने' आएगा। 


पेज नंबर 50 में लिखा दिखाई दिया कि..


'किनारे के काउच पर कुछ आराम से बैठ कर पढ़ने लगी'


यहाँ 'काउच पर कुछ आराम से बैठ कर पढ़ने लगी' की जगह 'काउच पर बैठ कर पढ़ने लगी' आए तो बेहतर। 


पेज नंबर 56 में लिखा दिखाई दिया कि..


'कोई बहुत प्यारी चीज छिन जाती है तब आप शिद्दत से महसूस करते है'


यहाँ 'चीज' की जगह 'चीज़' और 'है' की जगह पर 'हैं' आएगा। 



पेज नंबर 67 में लिखा दिखाई दिया कि..


'रॉबिन के फोन यदा कदा आते उसके पास रहते थे' 


यहाँ 'यदा कदा आते उसके पास रहते थे' की जगह 'यदा कदा उसके पास आते रहते थे' 


पेज नंबर 69 में लिखा दिखाई दिया कि..


' छोटा सा हमारा घर... जिसे मैंने बड़े जतन से रख रखा है'


यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए कि..


'छोटा सा हमारा घर.. जिसे मैंने बड़े जतन से सजाया संवारा है'


इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..


' मैं अपना सम्पूर्ण श्रृंगार किया है'


यहाँ ' मैं अपना सम्पूर्ण श्रृंगार किया है' की जगह पर ' मैंने अपना सम्पूर्ण श्रृंगार किया है' आएगा। 


पेज नंबर 71 में लिखा दिखाई दिया कि..


'एक लगातार अपराधबोध से मन दुखने लगा था'


इस वाक्य में 'एक' शब्द की जरूरत नहीं है।


पेज नंबर 72 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'हम दोनों के घर पास ही पास थे'


यहाँ 'पास ही पास' की जगह अगर 'पास-पास थे' आए तो बेहतर। 


पेज नंबर 79 के अंतिम पैराग्राफ में लिखा दिखाई दिया कि..


'बीच वाली मंजिल के किराएदार थे हम लोग और सबसे ऊपर वाली मंजिल था बस एक कमरा और छत'


यहाँ 'ऊपर वाली मंजिल था बस एक कमरा और छत' की जगह पर 'ऊपर वाली मंज़िल पर था बस एक कमरा और छत' आएगा। 


पेज नंबर 93 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'कामाक्षी रोने रोने को हो आई'


यहाँ 'रोने रोने को हो आई' की जगह पर 'रोने को हो आई' आएगा। 


पेज नंबर 101 में लिखा दिखाई दिया कि..


'संध्या की कहानियाँ काफी कुछ यथार्थ से जुड़ी होती थीं'


यहाँ 'संध्या की कहानियाँ काफी कुछ यथार्थ से जुड़ी होती थीं' की जगह पर अगर 'संध्या की कहानियाँ काफी हद तक यथार्थ से जुड़ी होती थीं' आए तो बेहतर। 


पेज नंबर 106 में लिखा दिखाई दिया कि..


'सोचता हूँ वापस घर लौट लें कुछ दिनों के लिए'


यहाँ 'लौट लें कुछ दिनों के लिए' की जगह अगर 'लौट चलें कुछ दिनों के लिए' आए तो बेहतर। 


पेज नंबर 116 में लिखा दिखाई दिया कि..


'सिर्फ मैं अकेला उसे बेन्च पर पर बैठ गया'


इस वाक्य में ग़लती से 'पर' शब्द दो बार छप गया है। 



* बीचोबीच - बीचोंबीच

*  नियमो - नियमों

* आजाद - आज़ाद

* थोडा - थोड़ा

* अन्जान - अनजान

* वहीँ - वहीं

* अंदाज - अंदाज़

* लडकियाँ - लड़कियाँ

* नजर - नज़र

* शयामल - श्यामल

* गुलजार - गुलज़ार 

* धडकनें - धड़कनें 

* इंतजार - इंतज़ार

* गुलमुहर - गुलमोहर

* इन्स्ताग्राम - इंस्टाग्राम



यूँ तो यह कहानी संग्रह मुझे उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 138 पृष्ठीय कहानी संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

तुकबंदियाँ मेरे मन की - 2

तुकबंदियाँ - 2025

1931 - देश या प्रेम -- सत्य व्यास

देश की आज़ादी के लिए ना जाने कितने अनाम या कम जाने गए स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने घर-परिवार छोड़ा और गृहस्थ जीवन का मोह त्याग बलिदान की राह पर चलकर अपनी कुर्बानियाँ दीं। तब कहीं जा कर बड़ी मुश्किल से हमें यह दिन देखने को नसीब हुआ कि हम सगर्व अपने देश के स्वतंत्रता दिवस को मना पाते हैं। मगर आज के संदर्भ में बहुत से लोग इन कुर्बानियों, इन बलिदानों को इस हद तक बिसरा चुके हैं कि उनके लिए स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस का मतलब महज़ एक छुट्टी भर रह गया है। इसी छुट्टी के दिन में अगर संयोग से कुछ और छुट्टियाँ जुड़ जाएँ तो इसे सोने पे सुहागा समझ आज के युवा घूमने-फिरने के लिए पहाड़ों इत्यादि पर निकल जाते हैं। 
दोस्तो... आज मैं यहाँ देशप्रेम से ओतप्रोत एक ऐसे उपन्यास '1931- देश या प्रेम' जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे लिखा है प्रसिद्ध लेखक सत्य व्यास ने। ये एक ऐसा ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें सत्य एवं कल्पना के समावेश से लेखक ने 1931 के क्रांतिकारी माहौल को पुनः जीवित करने का प्रयास किया है।
सत्य घटनाओं को आधार बना कर लिखे गए इस उपन्यास के मूल में कहानी है पश्चिम बंगाल के अलीपुर इलाके में पनप रहे क्रांति के उस माहौल की जिसने ब्रिटिश सरकार की चूलें तक हिलाते हुए उसके हुक्मरानों की नींदें उड़ा दी थी। इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ कहानी है 1931 के उस हिजली डिटेंशन कैंप की जहाँ पकड़े गए क्रांतिकारियों से राज़ उगलवाने के लिए उन पर अमानवीय अत्याचार किए गए। तो वहीं दूसरी तरफ़ आम जनता को भी निर्दोष होने के बावजूद बक्शा नहीं गया। इन सभी को इस हद तक दर्दनाक यंत्रणाओं के दौर से गुज़रना पड़ा कि किसी के हाथ-पैरों के नाखून तक उखाड़कर अलग कर दिए गए तो कोई अंग्रेज़ों के अमानवीय अत्याचारों की वजह से पागल हुए बिना नहीं रह पाया। 
 इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ पश्चिम बंगाल के मिदनापुर इलाके के क्रांतिकारी परिवेश, गांधीजी के नमक सत्याग्रह, और भगत सिंह जैसे साथी क्रांतिकारियों की शहादत की घटनाओं को रोचक ढंग से समाहित किया गया है। तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में मानवीय पक्ष के विभिन्न पहलुओं का ज़िक्र भी बड़ी सहजता एवं तसल्लीबख्श ढंग से होता दिखाई देता है कि किस तरह देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ी जा रही लड़ाई प्रबोध एवं अन्य किरदारों के सामाजिक, पारिवारिक एवं व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करती है।
इस उपन्यास में एक तरफ़ कहानी है किवंदती बन चुके उस क्रांतिकारी विमल गुप्त की जो ब्रिटिश सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद भी मरता नहीं और फ़ीनिक्स बन कर उनके तथा आम लोगों के ज़ेहन में मंडराता रहता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ में कहानी है बम बनाने की प्रक्रिया सीख चुके क्रांति दल के उस सबसे युवा सदस्य प्रबोध की जो बम के इस्तेमाल से उस वक्त के जिलाधिकारी जेम्स पेड्डी की हत्या करना चाहता है क्योंकि वह क्रांतिकारियों के समूल विनाश के मंसूबे के साथ मैदान में उतर चुका है।
इस उपन्यास में जहाँ एक तरफ़ बंगाल के मिदनापुर में घटी क्रांति की असली घटनाओं को आधार बना कर अँग्रेज़ों द्वारा बनाए गए डिटेंशन कैंप में कैदियों पर हुए अमानवीय अत्याचारों का जिक्र होता दिखाई देता है तो कहीं पंजाब और बंगाल के क्रांतिकारी आज़ादी के उद्देश्य से आपस में एक-दूसरे को सहयोग के रूप में हथियार मुहैय्या करवाते नज़र आते हैं।  कहीं युवा प्रबोध के अपने विद्यालय की लैबोरेट्री से ही बम बनाने के लिए ज़रूरी सामान का जुगाड़ करने की बात होती दिखाई पड़ती है तो कहीं प्रबोध के पड़ोस में रहने वाली कुमुद, जो उसे मन ही मन चाहती है, उसके इस उद्देश्य के लिए किसी न किसी बहाने उसकी प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से मदद करती दिखाई देती है।
इसी उपन्यास में कहीं डलहौज़ी स्क्वायर में क्रांतिकारियों के हड़बड़ाहट एवं जल्दबाज़ी में अंग्रेज़ों की कार के ऊपर बम फेंकने की प्रक्रिया में एक-दूसरे को मार बैठने की घटना का जिक्र पढ़ने को मिलता है तो कहीं क्रांतिकारियों द्वारा अदालत परिसर में ही अलीपुर के वरिष्ठ जज जस्टिस गार्लिक की इस वजह से हत्या होती दिखाई देती है क्योंकि उसने दिनेश गुप्त और रामकृष्ण विश्वास नामक दो क्रांतिकारियों को फाँसी देने का आदेश दिया था। 
इस उपन्यास में लेखक कहीं देशप्रेम से ओतप्रोत क्रांतिकारियों के साहस एवं जज़्बे की बातों को प्रभावी ढंग से कहते दिखाई पड़ते हैं तो कहीं कुमुद के कोमल मन में उपजती भावनाओं को भी अपनी लेखनी के ज़रिए सहजता से उकेरते दिखाई पड़ते हैं।  212 पृष्ठीय इस रोचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है दृष्टि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 199/- रुपए जो कि कंटैंट एवं क्वालिटी के हिसाब से जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं। 

राजेश खन्ना (एक तन्हा सितारा) - गौतम चिन्तामणि

बॉलीवुड में राजकपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की प्रसिद्ध तिकड़ी के बाद राजेश खन्ना ऐसे पहले अभिनेता थे जिसने सही मायने में सुपर स्टार का दर्जा पाया और जो अपने उत्थान से लेकर पतन तक एक राजा की तरह जिया।


दोस्तों...आज बॉलीवुड के पहले सुपर स्टार राजेश खन्ना की बातें इसलिए कि आज मैं उनकी जीवनी से संबंधित एक किताब 'राजेश खन्ना - एक तन्हा सितारा' के हिंदी अनुवाद का यहाँ जिक्र करने जा रहा हूँ जिसे मूलतः अँग्रेज़ी में लिखा है गौतम चिन्तामणि ने और इसका सफ़ल हिंदी अनुवाद किया है पैमिला मानसी ने।


राजेश खन्ना के उत्थान से लेकर पतन तक की कहानी कहती इस किताब में कहीं उनके बचपन से जुड़ी बातें पढ़ने को मिलती हैं तो कहीं हम उनके संघर्ष के दिनों से अवगत होते हैं। कहीं औरों की देखादेखी राजीनीति के गलियारों में उनके पदार्पण की बातें जानने को मिलती हैं तो कहीं वे राजनीति से विमुख होते दिखाई देते हैं। कहीं उनकी अभिनय प्रतिभा और शोहरत की बातें पढ़ने को मिलती हैं तो कहीं उनका घमंड सर चढ़ कर बोलता दिखाई देता है।


इस महत्त्वपूर्ण किताब को पढ़ने के दौरान पाठकों को बहुत सी रोचक जानकारियों से रूबरू होने का मौका मिलता है जैसे कि..



इस किताब के अनुसार बचपन से नाटकों और अभिनय का शौक रखने वाले जतिन खन्ना उर्फ़ राजेश खन्ना का जन्म 1942 में रेलवे ठेकेदारों के परिवार में हुआ। वहाँ उनके माता-पिता ने उन्हें अपने छोटे भाई यानी कि उनके चाचा को गोद दे दिया। जहाँ उनका बड़े ही लाड़-प्यार से पालनपोषण हुआ। इसी लाड़ प्यार की वजह से उनका स्वभाव कुछ ज़िद्दी वाला भी बना।


 राजेश खन्ना अपने विभिन्न साक्षात्कारों में जानबूझकर अपने आरंभिक जीवन के बारे में सभी को अलग-अलग बात बताते थे और प्रसिद्ध अभिनेत्री गीता बाली की वजह से राजेश खन्ना की फिल्मों में काम करने के प्रति रुचि जागृत हुई जब एक नाटक के लिए किसी बिल्डिंग में जाते वक्त उनकी गीतावली से मुलाकात हुई और उन्होंने उससे कहा कि उन्हें उनकी आने वाली फिल्म एक चादर मैली सी के लिए उसके जैसा ही एक अभिनेता चाहिए। हालांकि यह और बात है कि राजेश खन्ना को वह रोल नहीं मिल सका। बाद में खैर वह फिल्म भी गीता बाली की बेवक्त मौत की वजह से स्थगित कर दी गई। सफल होने से पहले स्ट्रगलर राजेश खन्ना खन्ना की कभी 'गुरखा' तो कभी 'नेपाली नौकर' कह कर खिल्ली भी उड़ाई गयी।


 इस किताब के ज़रिए जहाँ एक तरफ़ पता चलता है कि फ़िल्म 'कटी पतंग' की शूटिंग के दौरान राजेश खन्ना अपने साथियों पर हावी होने लगे और कभी गुलशन नंदा को अपना आधा जला सिग्रेट थमाने तो कभी कलैक्टर तक के घर खाना खाने जाने से इनकार करने लगे। तो वहीं दूसरी तरफ़ अनजान लोगों के साथ मिलकर गुटबाज़ी और शराब की पार्टियाँ तक करने लगे। 


■ 1969 से 1972 के बीच राजेश खन्ना ऐसे पहले हिंदी अभिनेता थे जिनकी फिल्में अहिन्दी भाषी हिंदी क्षेत्रों में भी लगातार महीनों भर तक पूरे भरे हुए सिनेमाघरों में चलतीं थीं। वह ऐसे पहले सितारे थे जिनकी फ़िल्मों की स्वर्ण जयंती मद्रास, बैंगलोर और हैदराबाद जैसे शहरों में भी मनायी जाती थी।

■ स्टार एण्ड स्टाइल पत्रिका की देवयानी चौबल जो कि आमतौर पर 'देवी' के नाम से जानी जाती थी, ने राजेश खन्ना को देखते ही एक जीतने वाले घोड़े के रूप में पहचान लिया था और उसी ने अपने आर्टिकल्स के ज़रिए राजेश खन्ना के इर्दगिर्द एक तिलिस्म सा खड़ा कर उसे 'स्टार' या 'सितारा' का नाम दिया। 

■ राजेन्द्र कुमार ने भुतहा कहे जाने वाले एक बंगले को खरीदने का मन बनाया तो मनोज कुमार की सलाह पर गृहप्रवेश से पहले कई तरह की पूजा करवाई और बंगले के नाम 'डिम्पल' रखा। यही बंगला बाद में राजेश खन्ना ने ख़रीदा और 'डिम्पल' ना रखने की इजाज़त ना मिलने पर उसका नाम 'आशीर्वाद' रखा। 

■ 'आशीर्वाद' में आ जाने के बाद उसके गैराज में राजेश खन्ना ने एक बहुत बड़ा बार बनवाया जहाँ वे अपना दरबार लगाते। इस प्रसिद्ध दरबार के बाहर राजेश खन्ना दसियों निर्माताओं को इंतज़ार करवाने के बाद अपने रूबरू पेश करवाते। वहाँ राजा और प्रजा के बीच के फ़र्क के लिए उनकी कुर्सी बाक़ी कुर्सियों से बड़ी और ऊँची जगह पर रखी जाती।


■ चमचों की भीड़ में फँसे राजेश खन्ना अक्सर अपनी महफिलों में किसी एक को बकरा बना बाक़ी सबके साथ मिलकर उसकी खिंचाई किया करते। और राजेश खन्ना या उसके काम की किसी भी तरह की आलोचना करने वाले को अक्सर महफ़िल से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता।


■ राजेश खन्ना की प्रसिद्धि का आलम यह था कि लड़कियाँ उन्हें अपने खून से अक़्सर ख़त लिखा करती जिसके साथ डॉक्टर का सर्टीफिकेट साथ में नत्थी होता था कि यह इनसानी खून से लिखी गयी चिट्ठी है। कहीं उनकी तस्वीर के साथ लड़कियों के शादी करने की बातें उठीं तो कहीं लड़कियों द्वारा उनकी सफेद कार को लाल लिपिस्टिक से रंग दिया जाता। कहीं मर्दों ने उनकी तरह का हेयर स्टाइल रखना तो कइयों ने उनके मशहूर गुरु कुर्ता पहनने शुरू कर दिए। जिसे बनाने वाले बलदेव पाठक ने उसी के साथ के 2000 से ज़्यादा कुर्ते बेचे।


■ सलीम-जावेद की जोड़ी को पहली बार औपचारिक रूप से श्रेय दिलाने का काम राजेश खन्ना की 'हाथी मेरे साथी' फ़िल्म ने किया।


■ 1972 में जब राजेश खन्ना के बजाय मनोज कुमार को फ़िल्म 'बेईमान' के लिए श्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई तो राजेश खन्ना इस कदर जलभुन गए कि उन्होंने ठीक अवार्ड सेरेमनी के समय पर ही अपने बँगले आशीर्वाद में एक पार्टी रख दी और फिल्मजगत के तमाम दिग्गजों को उसमें शामिल होने के लिए आमंत्रित कर दिया। ऐसे में अपना कार्यक्रम फ्लॉप होने के डर से फिल्मफेयर के आला अफ़सरों से वक्त रहते किसी तरह राजेश खन्ना को अपनी पार्टी रद्द करने के लिए मना लिया। 


■ इसी किताब के मुताबिक सलीम-जावेद की जोड़ी ने 'हाथी मेरे साथी' के बाद जितनी भी फ़िल्में लिखी, उनमें से किसी के लिए भी उन्होंने राजेश खन्ना के बारे में नहीं सोचा कि राजेश खन्ना को गुमान था कि फिल्में उनकी वजह से हिट होती हैं ना कि किसी और की वजह से। 


■ राजेश खन्ना अपनी प्रेमिका अंजू महेन्द्रू से शादी करना चाह रहे थे लेकिन अंजू बस जाने के लिए तैयार नहीं थी, जिससे उनके रिश्तों में इस हद तक खटास आ गयी थी कि उन्होंने मात्र पंद्रह साल की डिम्पल से शादी करने का फैसला किया और कहा जाता है कि उन्होंने जानबूझकर अपनी बारात को अंजू महेन्द्रू के घर के सामने से निकलवाया ताकि वे उसे तकलीफ़ पहुँचाने के साथ-साथ अख़बारों की सुर्खियों में भी छाए रह सकें।


■ इसी किताब के अनुसार अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने स्वीकार किया था कि अपनी असफलता की वजह से वे इस हद तक चिड़चिड़े और बेचैन हो गए थे कि निराशा के आलम में उन्होंने ख़ुदकुशी करने तक के बारे में भी सोच लिया था लेकिन फिर यह सोचकर उन्होंने ख़ुद को रोक लिया कि वे नहीं चाहते थे कि दुनिया उन्हें एक नाकामयाब इन्सान के रूप में देखे। 


■ एक प्रचलित कहानी के अनुसार अंजू महेन्द्रू से रिश्ता बिगड़ने के बाद उन्होंने उसकी फ़िल्म 'डाकू', जिसके निर्देशक बासु चटर्जी थे, के सारे प्रिंट और नैगेटिव ख़रीद कर जला दिए थे कि वह फ़िल्म कभी रिलीज़ ना हो सके। इसी नुकसान की भरपाई के लिए उन्होंने बासु चटर्जी की फ़िल्म 'अविष्कार' में काम किया था।


■ सलीम-जावेद की जोड़ी के अमिताभ बच्चन के साथ जुड़ने से जहाँ एक तरफ़ अमिताभ बच्चन ने बहुत ऊँचा मुकाम पाया तो वहीं दूसरी तरफ़ सलीम-जावेद भी पहले ऐसे लेखक बने जिनका नाम फ़िल्मों के इश्तेहारों पर भी आने लगा और फ़िल्म के लिए सितारों को भी चुनने और नकारने की आज़ादी अथवा ताक़त प्राप्त हुई।


■ इसी किताब से पता चलता है कि परिवार की ज़िद के चलते राजकपूर को 'सत्यम शिवम सुंदरम' फ़िल्म में राजेश खन्ना के बजाय अपने छोटे भाई शशि कपूर को लेना पड़ा था। 


और भी बहुत सी रोचक जानकारियों से लैस इस किताब में दो-तीन जगहों पर वर्तनी की त्रुटियाँ तथा एक-दो जगहों पर कोई-कोई शब्द बिना ज़रूरत छपा दिखाई दिया। राजेश खन्ना एवं फ़िल्मों में रुचि रखने पाठकों के लिए यह एक बढ़िया एवं संग्रह में रखी जाने वाली किताब है।


• रानीतिक - राजनीतिक

• अभनय - अभिनय

• कुतूहूल - कौतूहल


उम्दा अनुवाद एवं रोचक जानकारियों से सजी इस पुस्तक के 216 पृष्ठीय कमज़ोर कागज़ पर छपे पेपरबैक संस्करण को छापा है हार्परकॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- जो कि कंटैंट एवं क्वालिटी को देखते हुए मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक, अनुवादक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

कथा सप्तक - अनिलप्रभा कुमार


आमतौर पर हर लेखक अपने आसपास के माहौल अथवा परिवेश से प्रभावित हो कर या फिर अपने देखे भाले सच या फिर सुनी सुनाई बातों से रूबरू हो कर ही नया कुछ रचता है। जिसमें ज़रूरत के हिसाब से कम या ज़्यादा की मात्रा में कल्पना का समावेश हो सकता है। दोस्तों आज मैं यहाँ देशी विदेशी माहौल में रची बसी कहानियों के जिस संकलन की बात करने जा रहा हूँ। उसे रचा है अमेरिका में रहने वाली लेखिका अनिलप्रभा कुमार ने और उनके इस संकलन को 'कथा-सप्तक' का नाम दिया है इस संकलन के संपादक आकाश माथुर ने। 


इस संकलन की मानवीय संवेदनाओं और प्रैक्टिकलवाद के बीच के फ़र्क को दर्शाती एक कहानी उस जोड़े की बात करती है, जिसकी गाड़ी हाइवे पर एक हिरण के टकरा जाने से दुर्घटनाग्रस्त हो टूट-फूट चुकी है। जहाँ एक तरफ़ पत्नी हिरण के मारे जाने से व्यथित है तो वहीं दूसरी तरफ़ उसका पति अपनी गाड़ी के हुए नुकसान से। वहीं एक अन्य कहानी में अपने घर की तंगहाली से तंग आ कर समर अपनी माँ को अकेला छोड़ कर अमेरिका में स्टूडेंट वीज़ा पर चला जाता है। वहाँ उसे एक प्रतिष्ठित अख़बार में फ्रीलांस के तौर पर एक टास्क मिलता है जिसमें उसे हैरी ग्रोअर (हैरी ग्रोवर) की उसके घर में हुई गुमनाम मौत के बारे में तथ्यात्मक जानकारी जुटाने के लिए कहा जाता है। समर अनजाने में ही अकेलेपन से जूझ कर मृत्यु को प्राप्त कर चुके हैरी ग्रोअर के जीवन से भारत में अकेली रह रही अपनी माँ के एकाकीजीवन की तुलना करने लगता है। 


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में सब कुछ फ़िर से सामान्य करने की चाह में जब बच्चों की ज़िद पर उनके साथ रहने आए पिता की बरसों बाद अलग रह रही पत्नी से मुलाकात होती है। जिसके बाद कुछ ऐसा घटता है कि पिता की इच्छा का मान रखते हुए उनकी बेटी स्वयं ही उन्हें जाने के लिए कह देती है। 


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ कैंसर की वजह से कीमो थेरिपी के कष्ट झेलती तीस वर्षीय महक की दुनिया बस घर तक ही सिमट चुकी है। भीषण बर्फ़बारी और तूफ़ान के बीच बिजली चले जाने से अँधेरे घर में फँसे उसके माँ-बाप अपनी बच्ची की सेहत को ले कर परेशान हैं कि अगर इस बीच कोई दिक्कत हो गयी तो वे अपनी बेटी को अस्पताल कैसे ले कर जाएँगे। तो वहीं एक अन्य कहानी में दूसरे शहर में अपने पति के साथ सैटल होने पर ईशा अपने कुत्ते 'पेपे' को देखभाल के लिए अपने रिटायरमेंट ले चुके पिता के पास छोड़ जाती है। अनमने मन से ही सही मगर पिता को उसे अपनाना पड़ता है। पत्नी की दूसरे शहर में नौकरी होने की वजह से वह भी अपने पति के साथ रह नहीं पाती। ऐसे में पिता के अकेलेपन के साथी के रूप में पेपे उनके दिल में अपने लिए प्रेम और जगह बना तो लेता है मगर..


इसी संकलन की एक अन्य कहानी में विवाह के बाद विदेश जा कर बस चुकी माधवी, अपने पिता की मृत्यु के बाद, पुरानी यादों को फ़िर से संजोने के लिए वापिस अपने मायके लौटती तो है मगर रिश्तों में अब पहले सा अपनापन ना पा कर वापिस लौट जाती है। 

तो वहीं एक अन्य कहानी में 20 वर्षीया प्रीत का पिता उसके जन्म लेने से पहले ही यह कह कर घर से गया था कि किसी ज़रूरी काम से जा रहा है, जल्द ही लौट आएगा। प्रीत की माँ वीरो अब भी उसके आने की बाट जोह रही है। ऐसे में एक दिन..


किताब को पढ़ते वक्त मुझे प्रूफरीडिंग की कुछ कमियाँ भी दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 

7 में लिखा दिखाई दिया कि..


'यंइ तो वह अब स्थानीय सड़क पर ही थे'


यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..


'यूँ तो वे अब स्थानीय सड़क पर ही थे'


पेज नंबर 10 में लिखा दिखाई दिया कि..


'पता नहीं इंश्योरेंस कंपनी कितना भरपाया करती है'


यहाँ 'भरपाया' की जगह 'भरपाई' आना चाहिए। 


21 में लिखा दिखाई दिया कि..


'सब जगह विज्ञापन दे रहे है'


यहाँ 'विज्ञापन दे रहे है' की जगह 'विज्ञापन दे रहे हैं' आएगा। 


इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..


'समर के होंठ विद्रूप से सिकुड़े'


यहाँ 'विद्रूप से सिकुड़े' की जगह पर 'विद्रूपता से सिकुड़े' आएगा। 


पेज नंबर 22 में लिखा दिखाई दिया कि..


'शायद तभी उन्हें हैरी के भारतीय मूल का होने में संदे है'


यहाँ ग़लती से 'संदेह' की जगह पर 'संदे' छप गया है।


पेज नंबर 43 में लिखा दिखाई दिया कि..


'सोहम ने फिर से सबके गिलस भर दिये'


यहाँ 'गिलस' की जगह पर 'गिलास' आएगा। 


पेज नंबर 53 में लिखा दिखाई दिया कि..


'अभी इसके किमो के सैशन ख़त्म हुए हैं न'


यहाँ 'किमो के सैशन ख़त्म हुए हैं न' की जगह पर 'कीमो के सैशन ख़त्म हुए हैं न' आएगा। 


पेज नंबर 62 में लिखा दिखाई दिया कि..


'उसके जन्मदिन पर एक पकेट भी भेजती'


यहाँ 'पकेट' की जगह पर 'पैकेट' आएगा। 


पेज नंबर 82 में लिखा दिखाई दिया कि..


'कब आएगा वोह'


यहाँ 'वोह' की जगह पर 'वो' आएगा। 


इसी पेज की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..


'वीरो चुपचाप कोठरी में आँखें बद किए पड़ी है'


यहाँ 'आँखें बद किए पड़ी है' की जगह पर 'आँखें बंद किए पड़ी है' आएगा। 


• प्रगट - प्रकट

• सान्तवना - सांत्वना

• स्वपन - स्वप्न



रोचक कहानियों के इस 84 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है शिवना पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।


द होस्ट - आलोक सिंह खालौरी

आम इनसानी प्रवृत्ति के अनुसार हम एक-दूसरे से बात किए बिना नहीं रह पाते हैं। इसी बात को एक दूसरे तरीके से देखते हुए हम पाते हैं कि पहले के घरों में घर के बाहर एक-दो लोगों के बैठने लायक एक छोटा सा प्लेटफार्म टाइप का चबूतरा बना हुआ अक्सर दिखाई दे जाता था जिस पर शाम के समय घर की महिलाएँ बैठ कर अपने आमने-सामने या फ़िर दाएँ-बाएँ के घरों में रहने वाली स्त्रियों से गप्पें मारने, इधर-उधर की चुगली करने और किसी न किसी के आपसी झगड़ों, पारिवारिक कलहों, अफ़ेयरों इत्यादि जैसी ज़रूरी रिपोर्टों को एक-दूसरे तक पहुँचा कर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाया करती थीं। इसी इनसानी फितरत को भुनाने के लिहाज़ से बदलते समय के साथ घर के बाहर के इन चबूतरों की जगह टीवी ने ले ली और वह भी हमें वही सब दिखाने लगा जो हमें सुहाता था जैसे कि सास-बहू टाइप के सीरियल और बिग बॉस इत्यादि। 

इनमें से भी टीवी पर चल रहे बिग बॉस का क्रेज़ ऐसा है ज़्यादातर लोग अपना काम धंधा छोड़ कर इसमें भाग ले रहे प्रतिभागियों के बीच के आपसी झगड़ों, नोंक-झोंक और धींगामुश्ती को देखने के चक्कर में अपना कीमती समय बरबाद करते नज़र आते हैं कि चाहे-अनचाहे हम सबको दूसरे के फटे में अपनी टाँग घुसाने की आदत होती है। दोस्तों... आज इस विषय पर बातें इसलिए कि आज मैं यहाँ बिग बॉस की ही तर्ज़ पर लिखे गए जिस उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ, उसे 'द होस्ट' के नाम से लिखा है आलोक सिंह खालौरी ने। 

इस उपन्यास के मूल में कहानी है प्रतिभा के धनी इरफ़ान खान नाम के उस निर्देशक की जिसकी पिछली 4 लो बजट मूवीज़ ने उसके ठरकी प्रोड्यूसर को ठीकठाक पैसा कमा कर दिया है। इसके बावजूद भी प्रोड्यूसर खुश नहीं है कि वह उसकी सैटिंग फ़िल्म की हीरोइनों से नहीं करवा रहा है। ऐसे में निर्देशक इस शर्त पर उसे बिग बॉस की तरह का एक कार्यक्रम प्रोड्यूस करने के लिए मना लेता है कि वो इस बार उसकी बात बनवा देगा। 

बिग बॉस की ही तर्ज़ पर इस कहानी में मेहमानों के रूप में कुछ ऐसी विवादित शख्सियतों को जगह दी गयी है जो किस न किस वजह से चर्चा में हैं या जिन्हें चर्चा में बने रहना सुहाता है। इन शख्सियतों में जहाँ एक तरफ़ किसी भी क़ीमत पर फिल्मों में अपना मुकाम बनाने को आतुर एक नवोदित टीवी एक्ट्रेस है तो वहीं दूसरी तरफ़ पल्प फिक्शन के सुनहरे दौर को वापिस लाने के लिए प्रतिबद्ध एक नवोदित स्वयंभू लेखक भी इसमें अपनी हाजिरी भर रहा है। साथ ही इस कार्यक्रम में एक ऐसी अभिनेत्री भी शामिल है जो अपने सुनहरे दौर को जी चुकी है लेकिन अब भी अपने दौर के गुज़र जा चुकने की हकीकत को मानने को तैयार नहीं है। 

इनके साथ ही इस कार्यक्रम में एक प्रतिभा का धनी युवा क्रिकेटर भी अपनी मौजूदगी दर्शा रहा है जो अपनी शराब की लत और अक्खड़पने की वजह से अपने कैरियर के बेड़ागर्क कर चुका है। साथ ही एक चरित्रहीन फ़िल्म निर्माता, तिकड़मी महिला वकील और एक शातिर चोर भी इस 'द होस्ट' के कुनबे में शामिल है।

कार्यक्रम के दौरान अनपेक्षित ढंग से बिन बुलाए एक नवाब साहब और उनकी कनीज़ की एंट्री होती है और उसके बाद एक के बाद एक कर के कत्ल होने शुरू हो जाते हैं। 

इस उपन्यास को पढ़ते वक्त कहीं भूतिया फैक्टरी में भूतों के दर्शन से दोचार होना पड़ता है तो कहीं आजकल के तुरत फुरत बनने वाले उन लेखकों और प्रकाशकों के ऊपर कटाक्ष होता दिखाई देता है जिन्हें सही भाषा, वर्तनी और त्रुटियों का ज्ञान तक नहीं। उपन्यास को पढ़ते वक्त विभिन्न चैप्टर्स की शुरुआत में उस सीन से संबंधित चित्रों ने ख़ासा आकर्षित किया।
पाठकीय नज़रिए से अगर कहूँ तो रोचक एवं रहस्यमयी शुरआत के बाद यह उपन्यास मुझे एक सैट फॉर्म्युले पर आगे बढ़ता हुआ दिखाई दिया। 

पेज नम्बर 119 में लिखा दिखाई दिया कि..

'आज जो तुमने किया है न में....'

कहानी के हिसाब से यहाँ 'किया है न में....' की जगह पर 'किया है न मैं....' आना चाहिए।

पेज नम्बर 133 में लिखा नज़र आया कि..

'वैसे नवाब साहब, मेरे कहानी सुनाने से अगर आप ही ये कहानी सुनाएँ'

यहाँ 'मेरे कहानी सुनाने से' की जगह पर 'मेरे कहानी सुनाने के बजाय' आएगा। 

पेज नम्बर 138 में लिखा दिखाई दिया कि..

'हमारे कथित अपराध के संबंध में निम्नलिखित प्रश्न उठते हैं- एक तो कि क्या असेंबली में वास्तव में बम फेंके गए थे'

यहाँ 'एक तो कि' की जगह पर 'एक तो ये कि' आना चाहिए। 

• शाबास - शाबाश 

यूँ तो बढ़िया कागज़ एवं कलेवर से सुसज्जित यह उपन्यास मुझे उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस 213 पृष्ठीय रोचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है शब्दगाथा पेपरबैक्स ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

क़यामत - हरमिंदर चहल - सुभाष नीरव (अनुवाद)


कहते हैं कि दुख, विषाद या हताशा किसी सरहद या मज़हब की ग़ुलाम नहीं होती। किसी भी देश, धर्म अथवा संप्रदाय को मानने वाली हर माँ को उसके बच्चों से बिछुड़ने का दुख हर जगह..हर माहौल में एक जैसा होता है। इसी तरह आतंकवाद से दिन-रात त्राहिमाम करती जनता अथवा उससे जूझने वाले हर फौजी..हर सिपाही के मन में भी एक जैसी ही भावनाएं उमड़ती हैं। भले ही वे भारत या ईरान-इराक-अफ़गानिस्तान अथवा किसी भी अन्य मुल्क से ताल्लुक रखते हों।

दोस्तों.. आज मैं यहाँ इसी तरह के विषय पर लिखे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'क़यामत' के नाम से लिखा है पंजाबी लेखक हरमिंदर चहल ने और इसका हिंदी अनुवाद किया है प्रसिद्ध साहित्यकार एवं अनुवादक सुभाष नीरव ने। 

मूलतः इस उपन्यास में कहानी है इराक के अल्पसंख्यक यज़ीदी समुदाय पर इस्लामिक स्टेट (ISIS) के आतंक भरे कहर की। जिसमें एक परिवार के माध्यम से वहाँ के लोगों की दशा-दुर्दशा और बुरे हालात का वर्णन किया गया है। उस आईएसआईएस (ISIS) की जो ऐसा चरमपंथी संगठन है जिसके आतंक की की शुरुआत 2013 में हुई थी। इस संगठन का पूरा नाम इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (Islamic State of Iraq and Syria) है। शुरू में, इसे अल-कायदा इत्यादि का समर्थन प्राप्त था, लेकिन बाद में अल-कायदा ने इससे दूरी बना ली। मौजूदा हालात में  आईएसआईएस अब अल-कायदा से भी ज़्यादा क्रूर और खतरनाक संगठन के रूप में जाना जाता है। 

इस उपन्यास में कहीं जवान युवतियों और औरतों को जबरन बंधक बनाए जाने और सीरिया में लड़ाकों की यौनिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए इन्हें भेजे जाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा इनकी सकुशल बरामदगी सुनिश्चित करने के प्रयास होते नज़र आते हैं। कहीं ईरान-इराक के युद्ध में सद्दाम हुसैन द्वारा जबरन युवाओं को युद्ध में झोंके जाने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं दुश्मनों के लिए बिछाई गयीं बारूदी सुरंगों की चपेट में आ बेज़ुबान जानवरों के मरने की बात भी उठती नज़र आती है। 

इसी किताब में कहीं सद्दाम हुसैन द्वारा कुर्दिश इलाकों पर ज़ुल्म करने की वजह से वहाँ की जनता त्रस्त नज़र आती है तो कहीं सद्दाम हुसैन का हौसला तोड़ने के मद्देनज़र चीनी जैसी मामूली चीज़ की उपलब्धता पर भी अमेरिका द्वारा इस कदर बंदिश लगाने की बात होती दिखाई देती है कि इराक के शहरों, कस्बों और गाँवों में चीनी की मौजूदगी बमुश्किल ही दिखाई देती है। इसी उपन्यास में कहीं गद्दारी के शक में सद्दाम हुसैन के द्वारा ज़हरीली गैस के ज़रिए कुर्दिश इलाकों के गाँव के गाँव ख़त्म कर देने की बात होती नज़र आती है। 

इसी उपन्यास के द्वारा हमें पता चलता है कि यज़ीदी धर्म को इस वजह से मुस्लिमों द्वारा धर्म ही नहीं माना जाता कि इनकी बाइबल या कुरान की तरह कोई धार्मिक किताब नहीं है। साथ ही यज़ीदी धर्म में धार्मिक मान्यता के अनुसार उसके अनुयायी बुधवार के दिन नहाते नहीं हैं। जिसकी वजह से उन्हें गंदा समझ जाता है। 

इसी उपन्यास द्वारा हमें पता चलता है कि यज़ीदी धर्म वाले अपने धर्म का प्रचार नहीं करते क्यों बाहर का कोई भी व्यक्ति अन्य धर्मों की तरह अपना धर्म बदल कर इनके धर्म में नहीं आ सकता। साथ ही इराक के गाँवों में गाँव वालों द्वारा किसी की मौत पर बंदूकें चला-चला कर शोक मनाया जाता है। तो कहीं सुन्नी मुसलमानों द्वारा यजीदियों के जवान बच्चों का पैसे के लिए अपहरण कर लिया जाता है। 

इसी उपन्यास में कहीं गाँव देहातों में ISIS के बढ़ते प्रभाव एवं अतिक्रमण की वजह से आम जन चिंतित को कहीं अपनी तथा अपने क्षेत्र की सुरक्षा के प्रति सजग रूप से प्रयासरत नज़र आते हैं। तो कहीं ISIS के हमले के बाद अपने गाँव-घर छोड़ कर भागे लोगों द्वारा पेड़ों के पत्ते खा कर जीवित रहने या फ़िर अमेरिकी के रूप में हवाई जहाजों से फैंकी जाने वाली रसद सामग्री के पैकेटों पर निर्भर रहने की बात होती नज़र आती है। इसी किताब में कहीं सिखों (सिख धर्म के अनुयायी) द्वारा सीरिया और कुर्दिस्तान की सीमा पर शरणार्थियों की सेवा के लिए राहत कैंप चलाए जाने की बात पता चलती है। तो कहीं ISIS द्वारा सामूहिक नरसंहार के रूप में पूरे गाँव के बुज़ुर्गों और अधेड़ों को गोलियों द्वारा छलनी किए जाने की बात होती दिखाई देती है। 

 कहीं जवान युवकों और बच्चों को आत्मघाती हमलों के लिए तैयार किए जाने की बात तो कहीं जवान युवतियों को आगे बेचने या सैक्स स्लेव के रूप में ISIS के लड़ाकों द्वारा इस्तेमाल किए जाने की बात उठती दिखाई देती है। इसी उपन्यास में कहीं ISIS द्वारा विरोध किए जाने की सज़ा के रूप में एक युवती को पहले जबरन गैंगरेप का शिकार और फ़िर सबके सामने ज़िंदा जला दिए जाने की बात होती नज़र आती है। 

दरअसल किसी भी उपन्यास को एक शिफ़्ट में लिखने के बजाय कई-कई शिफ्टों में लिख कर तैयार किया जाता है। इस बीच वक्त ज़रूरत के हिसाब से बीच में काफ़ी दिनों के गैप का आ जाना भी कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसे में दिक्कत ये आती है कि पहले हम किसी चीज़ के बारे में कुछ और लिख चुके होते हैं मगर कहानी को बढ़ाते समय हम पहले लिखी बात को भूल जाते हैं जिससे कहानी की कंटीन्यूटी में फ़र्क आ जाता है। इस चीज़ का एक उदाहरण इस उपन्यास में भी नज़र आया कि पेज नंबर 105 में लिखा दिखाई दिया कि..

'वह आँखें मूंदे प्रार्थना कर रही थी। उठकर बाहर देखने का यत्न किया, पर सफलता नहीं मिली, क्योंकि खिड़कियों के शीशे कागज़ लगाकर ढके हुए थे।'

इससे अगले पैराग्राफ में दिखा दिखाई दिया कि..

'अंदाज़ा हुआ कि सवेरा हो चुका है। फिर दिन चढ़ गया और खिड़कियों के बाहर दिखने लगा।'

यहाँ एक पैराग्राफ़ पहले लेखक द्वारा बताया जा रहा है कि खिड़कियों से बाहर देख पाना मुमकिन नहीं था क्योंकि खिड़कियों के शीशों पर अख़बारी कागज़ चिपका हुआ था जबकि अगले ही पैराग्राफ़ में लिखा जा रहा है कि खिड़कियों से बाहर दिखाई दे रहा था।

इस उपन्यास को पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमियाँ भी दिखाई दीं जैसे कि पेज नम्बर 20 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'रात उसी तरफ बीती जैसे पहली रात बीती थी'

यहाँ 'रात उसी तरफ बीती' की जगह पर 'रात उसी तरह बीती' आएगा। 

पेज नम्बर 41 में लिखा दिखाई दिया कि..

'क्योंकि बाइबल या कुराना की तरह हमारी कोई धार्मिक किताब नहीं' 

यहाँ 'कुराना' की जगह पर 'कुरान' या फ़िर 'कुरआन' आएगा।

पेज नम्बर 56 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'मैंने तो तैयारी की थी कि भेड़ा काटूँगा'

यहाँ 'भेड़ा काटूँगा' की जगह पर 'भेड़ काटूँगा' आना चाहिए। 

पेज नम्बर 64 में लिखा नज़र आया कि..

'इस बातें से अमेरिका भी सावधान है'

कहानी के हिसाब से यहाँ 'इस बातें से अमेरिका भी सावधान है' की जगह पर 'इन बातों से अमेरिका भी सावधान है' आना चाहिए। 

पेज नम्बर 71 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसके कहे मुताबिक जो लोग भागने में कामयाब हो गए, वे सिंजार पहाड़ों की तरह निकल गए' 

यहाँ 'सिंजार पहाड़ों की तरह निकल गए' की जगह पर 'सिंजार पहाड़ों की तरफ़ निकल गए' आएगा। 

पेज नम्बर 79 में लिखा नज़र आया कि..

'क़रीब एक घंट बाद आकर वह संक्षेप में बात बताने लगा' 

यहाँ 'एक घंट बाद' की जगह पर 'एक घंटा बाद' आएगा। 

पेज नम्बर 84 में लिखा दिखाई दिया कि..

'इस वक्त इस्लामिक स्टेट वाले आँधी की तरह हर तरफ़ चढ़े जो रहे हैं' 

यहाँ 'चढ़े जो रहे हैं' की जगह पर 'चढ़े जा रहे हैं' आएगा। 

पेज नम्बर 89 में लिखा दिखाई दिया कि..

'पता नहीं था कि कब तक इस्लामिक स्टेट वालों का घरा पड़ा रहेगा' 

यहाँ 'घरा पड़ा रहेगा' की जगह पर 'घेरा पड़ा रहेगा' आना चाहिए। 

पेज नम्बर 112 में लिखा दिखाई दिया कि..

'मैंने राते हुए कहा' 

यहाँ 'मैंने राते हुए कहा' की जगह पर 'मैंने रोते हुए कहा' 

पेज नम्बर 113 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उसकी बात सुनकर फौजिया बड़ी विचलित हो गई और बाली'

यहाँ 'और बाली' की जगह पर 'और बोली' आएगा। 

पेज नम्बर 119 में लिखा नज़र आया कि..

'लगा जैसे सारा मास उखाड़कर ले गया हो' 

यहाँ 'मास' की जगह पर 'मांस' आएगा। 

पेज नम्बर 131 के अंत में लिखा नज़र आया कि..

'पीछे घर की चारदीवारी के ऊपर से घिसरते हुए दूसरी तरफ़ जाया जा सकता था' 

यहाँ 'घिसरते हुए' की जगह पर 'घिसटते हुए' आना चाहिए। 

पेज नम्बर 173 में लिखा दिखाई दिया कि..

'इस्लामिक स्टेट का नासिर नाक का एक खतरनाक आतंकवादी हलाक' 

यहाँ 'नासिर नाक का एक खतरनाक आतंकवादी हलाक' की जगह पर 'नासिर नाम का एक खतरनाक आतंकवादी' आएगा। 

पेज नम्बर 174 में लिखा दिखाई दिया कि..

'सुरक्षा फोर्सों ने उसको वहीं ढेर कर दियाकृ' 

यहाँ 'कर दिया' की जगह पर ग़लती से 'कर दियाकृ' छप गया है। 

* लावारिश - लावारिस 

* पड़क - पकड़ 

* (पूछ-तड़ताल) - (पूछ-पड़ताल)

* घिराव - घेराव 

* इस्लामिद स्टेट - इस्लामिक स्टेट 

* (धागा-तावीत) / (धागा-तावीज) 

उपन्यास को पढ़ते वक्त इस किताब के काफ़ी पेज अपनी बाइंडिंग से उखड़े मिले। जिसकी तरफ़ ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है।

यूँ तो यह उम्दा उपन्यास मुझे लेखक की तरफ से उपहारस्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इस रोचक किताब के 175 पृष्ठीय हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है भारत पुस्तक भंडार ने और इसका मूल्य रखा गया है 450/- रुपए जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक, अनुवादक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

यार पापा - दिव्य प्रकाश दुबे

कुछ किताबें आपको अपने पहले पन्ने..पहले पैराग्राफ़ से ही अपने मोहपाश में बाँध लेती हैं तो कुछ किताबें आपके ज़ेहन में शनैः शनैः प्रवेश कर आपको अपने वजूद..अपनी मौजूदगी से इस हद तक जकड़ लेती हैं कि आपसे बीच में रुकते नहीं बनता है और आप किताब के अंत तक पहुँच कर ही दम लेते हैं।
दोस्तों..आज मैं यहाँ लेखक दिव्य प्रकाश दुबे के 'यार पापा' के नाम से लिखे गए एक ऐसे उपन्यास की बात करने जा रहा हूँ जो अपनी कहानी के साधारण होने बावजूद भी धीरे-धीरे आपके मन-मस्तिष्क पर इस कदर हावी होता चला जाता है कि आप उसे पूरा किए बिना रह नहीं पाते।
इस उपन्यास के मूल में कहानी है देश के बड़े नामी वकील मनोज साल्वे और उससे अलग रह कर पुणे में कानून की पढ़ाई कर रही, उससे नाराज़ चल रही बेटी साशा की। जिनके आपसी रिश्ते में इस हद तक उदासीनता पनप चुकी है कि वह अपने बाप से बात तक नहीं करना चाहती। 
राजनीतिक गलियारों एवं बॉलीवुड तक पर अपनी गहरी एवं मज़बूत पकड़ के लिए जाने जाने वाले मनोज साल्वे का अपनी बेटी से सुलह का हर प्रयास विफ़ल होता है कि इस बीच मीडिया में एक हँगामासेज ख़बर फैलती है कि मनोज साल्वे की वकालत की डिग्री नकली है। 
एक तरफ़ उस पर अपनी बेटी एवं पत्नी से रिश्ते सामान्य करने का दबाव है तो दूसरी तरफ़ अदालत में अपने खिलाफ़ चल रहे नकली डिग्री के मामले से भी उसे बाहर निकलना है। ऐसे में अब देखना ये है कि तमाम तरह की दुविधाओं निकलने के इस प्रयास में क्या मनोज सफ़ल हो पाता है अथवा नहीं। 
अर्बन यानी कि शहरी कहानी के रूप में लिखे गए इस उपन्यास को पढ़ते वक्त बीच-बीच में कुछ एक जगहों पर अँग्रेज़ी में लिखे गए वाक्यों को भी पढ़ने का मौका मिला। जिसकी वजह से बतौर पाठक मुझे इस किताब के एक ख़ास वर्ग तक ही सीमित रह जाने का अंदेशा हुआ। साथ ही इस उपन्यास की कहानी के सबसे अहम ट्विस्ट के साथ बड़ी दिक्कत ये लगी कि कोई भी इनसान किसी जाली या फर्ज़ी डिग्री के साथ इतने बड़े मुकाम तक भला कैसे पहुँच सकता है? क्या पुलिस-प्रशासन सब आँखें मूंद कर सोए पड़े थे? साथ ही सोने पर सुहागा के रूप में एक कमी ये लगी कि उसे अपनी ग़लती सुधारने और फ़िर से डिग्री हासिल करने के लिए कॉलेज में एडमिशन भी मिल जाता है?
इस उपन्यास को पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की छोटी-छोटी कमियों के अतिरिक्त एक-दो जगहों पर वर्तनी की त्रुटियाँ भी दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 79 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वh हल्के - से मुस्कुराया और करवट लेकर सो गया'
यहाँ 'वh हल्के - से' की जगह 'वह हल्के से' आएगा। 
पेज नंबर 80 में लिखा दिखाई दिया कि..
'डेविड किनारे पर बैठ हुआ था। वे दोनों को देखकर मुस्कुरा था'
यहाँ 'दोनों को देखकर मुस्कुरा था' की जगह 'वह दोनों को देखकर मुस्कुरा रहा था' आएगा। 
पेज नंबर 89 में लिखा दिखाई दिया कि..
'एक लड़की जो समझदार थी, वह अपने गुस्से से बार-बार हार जा रही थी'
यहाँ 'बार-बार हार जा रही थी' की जगह 'बार-बार हार रही थी' आना चाहिए। 
इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..
'क्योंकि तुम मम्मी को 100 प्यार करती हो और मुझे 99'
यहाँ 'क्योंकि तुम मम्मी को 100 प्यार करती हो और मुझे 99' की जगह ''क्योंकि तुम मम्मी को 100 ℅ प्यार करती हो और मुझे 99℅' आएगा।
पेज नंबर 133 में लिखा दिखाई दिया कि..
'जैसे भारत के कुछ प्रदेश में एक समय पर कुछ अनकहे नियम थे'
यहाँ 'जैसे भारत के कुछ प्रदेश में' की जगह 'जैसे भारत के कुछ प्रदेशों में' आएगा। 
पेज नंबर 143 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..
'मैंने जब सायकॉलजी और फ़िलॉसफ़ी दोनों से अपने पोस्ट पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया'
यहाँ 'दोनों से अपने पोस्ट पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया' की जगह 'दोनों से अपना पोस्ट पोस्ट ग्रेजुएशन कर लिया' आएगा। 
पेज नंबर 181 में देखा दिखाई दिया कि..
'मनोज ने इशारे से कहा, बस दो मिनट और अगले दो घंटे में मनोज के 2 घंटे नहीं आए'
यहाँ बात 'दो मिनट' की हो रही है। इसलिए ये वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..
'मनोज ने इशारे से कहा, बस दो मिनट और अगले दो घँटों में मनोज के दो मिनट नहीं आए'
पेज नंबर 194 में लिखा दिखाई दिया कि..
'जाओ मनोज! मीता ने कहा, "स्पेशल बैच है, इतने बड़े आदमी के साथ पास हो रहा है'
दृश्य के हिसाब से यहाँ 'जाओ मनोज' के बजाय 'आओ मनोज' आना चाहिए। 
पेज नंबर 215 में दिखा दिखाई दिया कि..
'ये ऐसे ही था जैसे रिटायर होने बाद कोई खिलाड़ी दुबारा उतरता है'
यहाँ 'रिटायर होने बाद' की जगह 'रिटायर होने के बाद' आएगा। 
• फ़ज - फोर्ज (जालसाज़ी)
• पुछ - पुंछ (आँसू) - पेज नम्बर 184
223 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- जो कि मुझे ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

विहान की आहट - वंदना बाजपेयी

किसी चीज़ का जब आपको कोई नशा हो जाता है या आप किसी चीज़ के आदि हो जाते हैं तो आप उसके बिना नहीं रह पाते हैं जैसे कि मुझे चाय पीने की इस हद तक आदत लग चुकी है कि मैंने अपने कमरे में ‘चाय बिना चैन कहाँ रे’ नाम का एक कट आउट भी लगाया हुआ है। ठीक इसी तरह पिछले कुछ सालों से मेरा पढ़ने का शौक फ़िर से जागा है और मैं अमूमन एक साल में ऑनलाइन तथा ऑफलाइन मिला कर लगभग 100-105 किताबें पढ़ लेता हूँ। मेरा प्रयास रहता है कि मैं कैसे भी कर के रोज़ाना कम से कम कुछ समय पढ़ने के लिए ज़रूर निकालूँ। इसी वजह से मैं अपने लगभग 1 महीने के दुबई प्रवास के लिए भी कुछ किताबें दिल्ली से अपने साथ ले कर आया हूँ।

इसी कड़ी में पढ़ी गयी पहली किताब जिसका मैं यहाँ जिक्र करने वाला हूँ, उसे लिखा है प्रसिद्ध लेखिका वंदना बाजपेयी ने ‘विहान की आहट' के नाम से। इसी संकलन की एक कहानी जहाँ एक तरफ़ उस कृति की बात कहती है जिसके जीवन में उसके पति, जयंत के देहांत के बाद एक रिक्तता सी आ चुकी है। मरने से पहले जयंत और कृति की आपसी सहमति से जयंत ने अपने स्पर्म एक अस्पताल में फ्रीज़ करवा कर रखे थे कि भविष्य में जब उन्हें बच्चे की चाह होगी, तब वे काम आ जाएँगे। अब एक तरफ़ जयंत की माँ की इच्छा है कि अपने बेटे के उन्हीं स्पर्म्स के ज़रिए कृतिका एक बच्चे को यानी कि उनके खानदान के वारिस को जन्म दे तो दूसरी तरफ़ कृतिका की माँ इस रिश्ते से आगे बढ़ उसे फ़िर से घर बसाने की सलाह दे रही है। अब देखना यह है कि पशोपेश में पड़ी कृति क्या निर्णय लेती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी बूढ़ी अम्मा और सिम्मो नाम की गाय के बीच के आपसी रिश्ते, समझ और प्रेम की बात करते-करते भारतीय गौशालाओं में व्यापत अव्यवस्थाओं, गंदगी तथा उनकी दुर्दशा पर भी बात करती दिखाई देती है कि किस तरह गायों के चारे के लिए आया पैसा भी आपसी मिल बाँट के ज़रिए हज़म कर लिया जाता है। साथ ही इस कहानी के माध्यम से लेखिका बाहर आवारा घूमने के लिए विवश कर दी गायों की दारुण स्थिति पर भी चिंता व्यक्त करती दिखाई देती हैं कि किस तरह भोजन के लालच में गायें और अन्य पशु  कूड़े से भरी पॉलीथीन निग़ल जाते हैं।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ अपनी कैंसर की बीमारी से टूट चुकी मिताली की मुलाकात अस्पताल में हँसती खिलखिलाती ज्योत्सना से होती है तो उसके फैशनेबल रंग ढंग देख कर मिताली को उस पर बहुत गुस्सा आता है कि ऐसी जगह पर कोई कैसे हँस-खेल या खिलखिला सकता है? मगर जब वह स्वयं जब ज्योत्सना से रु-ब-रु मिलती है तो उसे अपनी तमाम धारणा को बदलने पर मजबूर होना पड़ता है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी स्त्री विमर्श की राह पर चलने के साथ-साथ साहित्यिक आयोजनों के ज़रिए संपर्क बढ़ाने एवं उन्हें अपने हिसाब से साधने के खेल की पोल खोलने के साथ-साथ तमाम तरह के दाँव पेचों एवं बनने बिगड़ने वाली गुटबाज़ियों के भीतर भी झाँकने का प्रयास करती नज़र आती है। 

इसी संकलन की एक अन्य कहानी 'बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ' के स्लोगन को सार्थक करते हुए स्त्री शिक्षा की महत्ता को दर्शाने के साथ-साथ गाँव में सोलर प्लांट लगने की वजह से किसानों को मिले मुआवज़े एवं गाँव के विकास की बात करते-करते काश्तकारों की दिक्कतों का भी प्रभाव ढंग से वर्णन करती है। तो वहीं एक अन्य कहानी में कामवाली बाई 'कविता' के ना आने से घर के काम स्वयं कर रही सौम्या को उसकी पड़ोसन प्रैक्टिकल होने का ज्ञान दे तो देती है मगर क्या सौम्या स्वयं भी उसकी तरह हो पाती है?

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ घर की छोटी बहू, मेघना अपनी सास के साथ गाँव में ही रह कर अपनी सास की सेवा श्रुषा करती है जबकि घर की बड़ी बहुएँ अपने-अपने पतियों के बाहर जा कर बस चुकी हैं। सास-बहू के इस नोकझोंक भरे खट्टे-मीठे रिश्ते के बीच उन दोनों में प्यार बना रहता है। बुढ़ापे में एक साथ अनेक बीमारियों से लड़ रही सास अपने मरने से पहले सोने के कुछ गहने मेघना के नाम लिख कर दे जाती है परंतु मेघना उनकी मृत्यु के बाद भी उन गहनों पर अपना अकेले का हक़ नहीं जताती है कि इससे तीनों भाइयों के बीच आपस में झगड़ा हो जाएगा। उसके लिए सास के दिए अच्छे संस्कार ही उसकी विरासत हैं। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति को अपना किसी भी तरह से अपने जीवन में सफ़लता प्राप्त करना चाहता है और उसकी यही चाहत उससे एक ऐसी मेधावी लड़की का दिल तुड़वा बैठती है जो उसकी झूठी बातों में आ, उससे प्रेम करने लगी थी।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी में सोशल मीडिया पर औरों द्वारा ज़ाहिर की जा रही आभासी खुशियों से प्रभावित हो कर कहानी की नायिका अपने जीवन में तमाम तरह का तनाव एवं दुख भर लेती है। अब देखना ये है कि क्या वह इस सब से मुक्त हो पाती है अथवा नहीं।

धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी बेहद प्रभावी कहानियों से लैस इस कहानी संकलन में ज़रूरी जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। साथ ही जहाँ पर ज़रूरत नहीं है, वहाँ भी नुक्ते लगे दिखाई दिए जैसे कि 'मैसेज़'। यहाँ 'मैसेज़' नहीं बल्कि 'मैसेज' आना चाहिए। इसके साथ ही बहुत सी जगहों पर प्रूफरीडिंग की छोटी-छोटी कमियों के अतिरिक्त वर्तनी की कुछ त्रुटियाँ भी दृष्टिगोचर हुईं। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर 25 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उत्तर में राहते हथेलियों में आने लगीं'

यहाँ 'राहते' के बजाय 'राहतें' आएगा।

■ पेज नम्बर 30 में लिखा दिखाई दिया कि..

‘मन के तालाब पर एक कंकण फेंका गया’ 

यहाँ ‘कंकण’ की जगह ‘कंकर/कंकड़’ आएगा।

पेज नम्बर 50 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

‘इसलिए सेफ्टी पिन में जकड़ी साड़ी की साँस भले ही घुटती रहे पर उसे आत्मविश्वास तभी आता जब उसका पल्लू उसके अंडर कंट्रोल हो’

यहाँ ‘सेफ्टी पिन में जकड़ी साड़ी की साँस भले ही घुटती रहे’ की जगह पर ‘सेफ्टी पिन में जकड़ी साड़ी से साँस भले ही घुटती रहे’ आएगा।

पेज नम्बर 55 में लिखा दिखाई दिया कि..

‘दुख और दुखियारों की भीड़ में इससे ज़्यादा संवेदना की चिल्लर किसी की पास बची नहीं थी’ 

यहाँ ‘संवेदना की चिल्लर किसी की पास बची नहीं थी’ की जगह पर ‘संवेदना की चिल्लर किसी के पास बची नहीं थी’ आएगा।

पेज नम्बर 62 में लिखा दिखाई दिया कि..

‘हम कैसर पेशेंट ही क्यों उसे आँखें खोल कर घूरे’

यहाँ ‘कैसर पेशेंट’ की जगह ‘कैंसर पेशेंट’ और ‘घूरे’ की जगह पर ‘घूरें’ आएगा।

पेज नम्बर 63 में लिखा दिखाई दिया कि..

‘सही चयन के महत्व को सीखा देता है’
यहाँ ‘सीखा देता है’ की जगह ‘सिखा देता है’ आएगा। 

पेज नम्बर 72 में लिखा दिखाई दिया कि..

'क्रोध को ज़ब्ज कर मैंने लैपटॉप खोला'

यहां ध्यान देने वाली बात है कि 'ज़ब्ज' कोई शब्द ही नहीं है। असली शब्द 'जज़्ब' है जिसका अर्थ है 'चूस लेना' । इसलिए यहाँ 'ज़ब्ज' की जगह 'जज़्ब' आएगा। 

इसी तरह की ग़लती मुझे पेज नम्बर 75 में भी छपी दिखाई दी। 

इसके बाद पेज नम्बर 82 में भी यही ग़लती फ़िर से दोहराई जाती दिखी। 

■ पेज नम्बर 73 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उनके हिसाब से नौकरी, नाम, पैसा से कहीं अधिक प्यार करने वाला साथी बहुत ज़रूरी होता है, जीवन के लिए'

इस वाक्य में 'पैसा' की जगह 'पैसे' आना चाहिए। 

■ पेज नम्बर 76 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जाते-जाते अपने जैसा धैर्य, सबको साध कर चलने की कला, और मेरी उंगलियों में वहीं स्वाद खुलेआम दे गईं'

यहां 'वहीं स्वाद खुलेआम दे गईं' की जगह 'वही स्वाद खुलेआम दे गईं' आएगा। 

■ पेज नम्बर 85 में लिखा दिखाई दिया कि..

'टाँगे काट डालिबे अब अगर पढ़ाई की बात करी तो...'

यहाँ 'टाँगे' की जगह 'टाँगें' आएगा।

■ पेज नम्बर 87 में लिखा दिखाई दिया कि..

'मायके आई हुई बेटियाँ बैलगाड़ी से ही आती बाक़ी को तो सब तो अपने पैरों की ग्यारह नम्बर बस का ही सहारा था'

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'मायके आई हुई बेटियाँ बैलगाड़ी से ही आतीं बाक़ी को तो बस अपने पैरों की ग्यारह नम्बर बस का ही सहारा था'

■ पेज नम्बर 92 के अंत में लिखा दिखाई दिया कि..

'पुरखों द्वारा बनवाए गई इस हवेली में उनके दादा- परदादा के समय बहुत रौनक रहती थी'

यहाँ 'पुरखों द्वारा बनवाए गई इस हवेली में' की जगह 
'पुरखों द्वारा बनवाई गई इस हवेली में' आएगा।

■ पेज नम्बर 93 में लिखा दिखाई दिया कि..

'कई साल पहले तक तो बस प्राइमरी तक पाठशाला थी जिसमें गांव के बच्चे खाना-पूरी करने जाते'

यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि 'खाना-पूरी' सही शब्द नहीं है बल्कि 'खानापूर्ति' सही शब्द है। जिसका अर्थ केवल दिखावा करना होता है। अतः ये वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'कई साल पहले तक तो बस प्राइमरी तक पाठशाला थी जिसमें गांव के बच्चे खानापूर्ति के लिए जाते'

■ इसी पेज पर और आगे लिखा दिखाई दिया कि..

" 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' का दवाब बना"

यहाँ 'दवाब बना' की जगह 'दबाव बना' आएगा। 

■ पेज नम्बर 94 में लिखा दिखाई दिया कि..

'बड़े हो क्या रौब जमाओगे'

यहाँ 'बड़े हो क्या रौब जमाओगे' की जगह 'बड़े हो तो क्या रौब जमाओगे' आएगा। 

■ पेज नम्बर 107 में लिखा दिखाई दिया कि..

'कितना चलेगा तब एक और दरवाज़ा और खुलेगा सब्जी लेने को'

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'कितना चलेगा तब जा कर एक और दरवाज़ा खुलेगा सब्ज़ी लेने को'

■ पेज नम्बर 111 में लिखा दिखाई दिया कि..

'मैं ही आज ही निकाल बाहर करती हूँ इसे'

यहाँ 'मैं ही आज ही' की जगह 'मैं आज ही' आएगा।

■ पेज नम्बर 111 में और आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'जिनकी रिपोर्ट जीवन को न जाने किस दशा में घुमा सकती थी'

यहाँ 'किस दशा में घुमा सकती थी' की जगह अगर किस दिशा में घुमा सकती थी' आए तो बेहतर।

■ पेज नम्बर 119 में लिखा दिखाई दिया कि..

'चिंटू को संभलती अम्मा'

यहाँ 'चिंटू को संभलती अम्मा' की जगह 'चिंटू को संभालती अम्मा' आएगा।

■ पेज नम्बर 120 में लिखा दिखाई दिया कि..

'घर जैसे रस्सी से बांध दिया गया हो उसके पैर'

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'घर जैसी रस्सी से बाँध दिए गए हों उसके पैर'

■ पेज नम्बर 124 में लिखा दिखाई दिया कि..

'वो स्नेह से भीगे मन लिए अम्मा से चिपट गई'

यहाँ 'स्नेह से भीगे मन लिए' की जगह 'स्नेह से भीगा मन लिए' आएगा। 

■ पेज नम्बर 132 में लिखा दिखाई दिया कि..

'बच्चे कोचिंग सेंटर के पीछे ऐसे भागते हैं जैसे गुण के पीछे मक्खियाँ'

यहाँ 'गुण' के बजाय 'गुड़' आएगा।

■ पेज नम्बर 143 में लिखा दिखाई दिया कि..

'और वह यह खुशी उसके के साथ बैठना चाहता था'

यहाँ 'उसके के साथ बाँटना चाहता था' की जगह 'उसके साथ बाँटना चाहता था' आएगा।

■ पेज नम्बर 159 में लिखा दिखाई दिया कि..

'क्या सोचती होंगी और सहेलियाँ? यहीं ना कि ये फ़ोटो नहीं डालती'

यहाँ 'यहीं ना' की जगह 'यही ना' आएगा। 

 पेज नम्बर 161 में लिखा दिखाई दिया कि..

'फूल ना नहीं फूलों का प्रिंट ही सही'

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'फूल ना सही, फूलों का प्रिंट ही सही'

इस संकलन में बहुत सी जगहों पर ‘कि’ की जगह पर त्रुटिवश ‘की’ भी लिखा दिखाई दिया तथा दो-एक जगह पर ठीक इसका उलटा भी लिखा दिखाई दिया। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर 89 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जाने कौन-कौन से रंगन का लगावे रहत है। जाने खात है की चाट जात है'

यहाँ 'की' की जगह 'कि' आएगा। 

■ ■ पेज नम्बर 91 में लिखा दिखाई दिया कि..

'पर सुने हैं की या तो सूरज देवता की रोशनी से बिजली बनइहे'

यहाँ 'पर सुने हैं की' में 'की' की जगह 'कि' आएगा।

■ ■ पेज नम्बर 97 में लिखा दिखाई दिया कि..

'पढ़ने-लिखने और नौकरी करने का ये अर्थ नहीं की लड़कियां घर तोड़ देंगी'

यहाँ 'ये अर्थ नहीं की लड़कियाँ घर तोड़ देंगी' की जगह 'ये अर्थ नहीं कि लड़कियाँ घर तोड़ देंगी' आएगा। 

■ ■ पेज नम्बर 100 में लिखा दिखाई दिया कि..

'का है की बालिग है बिटिया, थाना कचहरी में रिपोर्ट कर दी तो का करिहो'

यहाँ 'की' की जगह 'कि' आएगा। 

■ ■ पेज नम्बर 101 में लिखा दिखाई दिया कि..

'वह देर तक वहीं खड़ी बाबूजी कि आँखों में पल को झलकती वात्सल्य से भीगती रही'

यहाँ 'बाबूजी कि आँखों में' की जगह 'बाबूजी की आँखों में' आएगा।

■ ■ पेज नम्बर 116 में लिखा दिखाई दिया कि..

'उन दोनों को उंगली ऊपर से नीचे कि ओर लानी होती थी'

यहाँ 'ऊपर से नीचे कि ओर लानी होती थी' की जगह 'ऊपर से नीचे की ओर लानी होती थी' आएगा। 

■ ■ पेज नम्बर 146 में लिखा दिखाई दिया कि..

'अलबत्ता वो ये समझते हुए भी की सोनाक्षी उसे देख रहीं है, पूरी कोशिश करता उसकी तरफ़ ना देखे'

यहाँ 'अलबत्ता वो ये समझते हुए भी की सोनाक्षी उसे देख रहीं है' की जगह 'अलबत्ता वो ये समझते हुए भी कि सोनाक्षी उसे देख रही है' आएगा।

■ ■ पेज नम्बर 160 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जिससे वो सबको ये एहसास दिला सके की उसके और अनिल जी के बीच अभी भी पंद्रह साल पुराना प्यार,..नया नया सा है'

यहाँ 'एहसास दिला सके की' की जगह 'एहसास दिला सके कि' आएगा। 

■ ■ इसी पेज पर और आगे बढ़ने पर लिखा दिखाई दिया कि..

'फ़ोटो डालने के नाम पर उसके दिल में गुदगुदी हुई थी की पूछो मत'

यह वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'फ़ोटो डालने के नाम पर उसके दिल में इतनी गुदगुदी हुई थी कि बस पूछो मत'

■ ■ पेज नम्बर 162 में लिखा दिखाई दिया कि..

'शादी को पंद्रह साल हुए नहीं की सारा प्यार उड़ गया'

यहाँ 'की' की जगह 'कि' आएगा।

■ ■ पेज नम्बर 164 में लिखा दिखाई दिया कि..

'देखो मैं समझता हूँ की तुम फ़ोटो डालना चाहती हो'

यहाँ भी 'की' की जगह 'कि' आएगा। 

■ ■ पेज नम्बर 165 में लिखा दिखाई दिया कि..

'जी में आता की जी भर के लड़े पर सेल्फ लव की प्रैक्टिस बीच में आ जाती'

यहाँ भी 'की' की जगह 'कि' आएगा और 'लड़े' की जगह पर 'लड़ें' आएगा।

■ ■ पेज नम्बर 165 की अंतिम पंक्तियों में देखा दिखाई दिया कि..

'आज ही शीशे में देखकर कहना तो उसे था की आई लव यू राधा, तुम कितनी सुंदर हो'

यहाँ 'कहना तो उसे था की' की जगह 'कहना तो उसे था कि' आएगा। 

■ पेज नम्बर 168 में लिखा दिखाई दिया कि..

'बहुत पहले कभी कहीं गए भी से तो अम्मा, बाबूजी, अनिल की बहन-बहनोई, उनके बच्चे, अपने बच्चे यानी की पूरी फौज'

इस वाक्य में 'पहले कभी कहीं गए भी से' में 'से' की जगह पर 'थे' आएगा और 'उनके बच्चे, अपने बच्चे यानी की पूरी फौज' की जगह पर 'उनके बच्चे, अपने बच्चे यानी की पूरी फौज के साथ' आएगा। 

* राजी- राज़ी
* हाथ पोछते - हाथ पोंछते
* ज़ब्ज - जज़्ब
* ज़िरह (बहस करना) - जिरह (बहस करना)
* आहवाहन - आह्वान
* पोड़ियम - पोडियम
* मगज़मारी - मगजमारी
* (पढ़ें लिखे) - (पढ़े-लिखें)
* कुए - कुँए
* खारिज़ - ख़ारिज
* पोछ कर (नम आँखों को) - पोंछ कर (नम आँखों को)
* गई गुजरी - गई गुज़री
* रस्सा कसी - रस्साकशी
* स्टाइयलिश - स्टाइलिश/स्टायलिश
* और; - और
* फ़क्र - फ़ख्र
* फक्र - फ़ख्र
* ऐक्टिव - एक्टिव
* ऐटीट्यूड - एटीट्यूड ‍‌‌‌
* कारू का खजाना - कारूं का खज़ाना
* दवाब – दबाव 
* गुड – गुड़ 
* ब्लड़ प्रेशर – ब्लड प्रेशर 
* मष्तष्क– मस्तिष्क 
* रस्टोरेंट – रेस्टोरेंट
* रिशेप्शन – रिसेप्शन 
* कैसर – कैंसर 
* मुसकुराते – मुस्कुराते

168 पृष्ठीय इस रोचक कहानी संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रूपए। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

सुनो... तुम्हें प्रेम बुलाता है - शिखा श्रीवास्तव 'अनुराग'

आम बॉलीवुडीय फ़िल्मों को अगर दो कैटेगरीज़ में बाँटने का प्रयास करें तो मेरे ख़्याल से एक तरफ़ तमाम मसाला फ़िल्में तो दूसरी तरफ राजश्री प्रोडक्शन्स की 'मैंने प्यार किया', 'नदिया के पार' या फ़िर 'हम आपके हैं कौन सरीखी' साफ़सुथरी संस्कारी  फ़िल्में आएँगी। 
सिक्के के पहलुओं की तरह जीवन में भी अच्छे और बुरे, दो तरह के लोग होते हैं। जहाँ एक तरफ़ कुछ लोग ऐसे होते हैं जो मौका मिलने पर डसने से नहीं चूकते तो वहीं दूसरी तरफ़ कुछ इस तरह के लोग भी होते हैं जिनके संस्कार उन्हें किसी के साथ कुछ भी बुरा नहीं करने देते। 
दोस्तों... आज मैं यहाँ राजश्री प्रोडक्शन्स की फ़िल्मों की ही तरह की साफ़सुथरी कहानी से लैस जिस उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ उसे 'सुनो... तुम्हें प्रेम बुलाता है' के नाम से लिखा है शिखा श्रीवास्तव 'अनुराग' ने। इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी है पढ़ाई-लिखाई में औसत रहने वाली उस ईशाना की जो अपने ट्यूशन टीचर की मदद एवं प्रेरणा से अपनी क्लास में अव्वल स्थान प्राप्त करती है तो वहीं दूसरी तरफ़ इस उपन्यास में कहानी है उस सागर की जो ईशाना को ट्यूशन पढ़ाने के साथ-साथ स्वयं भी पढ़ाई कर अपना कैरियर बनाने का प्रयास कर रहा है। धीमी आँच पर सहज..सरल तरीके से पकती इस प्रेम कहानी में पढ़ाई के दौरान दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षण तो महसूस करते हैं मगर मर्यादा एवं संस्कार में बँधे होने के कारण दोनों में से कोई भी अपने मन की बात को खुलकर नहीं कह पाता। 
आपसी गलतफहमियों के चलते एक-दूसरे से बिछुड़ने के 10 वर्षों बाद दोनों की फ़िर से मुलाक़ात होती है। अब देखना यह है कि क्या अब भी उनमें प्रेम की तपिश बाक़ी है या फ़िर वक्त के थपेड़ों के साथ वे एक-दूसरे को भूल अपने जीवन में अलग रास्ता अख्तियार कर चुके हैं। 
इस उपन्यास में कहीं UPSC की तैयारी में कोई कसर बाक़ी न रखने के बावजूद भी सफ़लता न मिलने पर कहीं हताशा उत्पन्न होती दिखाई देती है तो कहीं सहज तरीके से एक-दूसरे को समझने और संभालने का प्रयास होता नज़र आता है। फ्लैशबैक के आधार पर बढ़ती हुई इस कहानी में कहीं आपसी कम्युनिकेशन ना हो पाने की वजह से ग़लतफ़हमी उत्पन्न होती नज़र आती है। तो कहीं अपने दुःख को किसी के साथ बाँटने के बजाय नायिका अंदर ही अंदर घुटती दिखाई देती है।
कहीं धर्मवीर भारती जी की कालजयी रचना 'गुनाहों का देवता' का जिक्र होता नज़र आता है तो कहीं प्रसिद्ध उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' की कोई पंक्ति मौजूदा परिस्थितियों के अनुसार कोट की जाती दिखाई पड़ती है। तो कहीं 12th फेल और डार्क हॉर्स जैसे उपन्यासों के ज़रिए निरंतर संघर्ष करते रहने की प्रक्रिया पर बल दिया जाता दिखाई देता है। कहीं बचत के पैसों के ज़रिए किताबें खरीदने की बात होती दिखाई देती है तो कहीं निजी लायब्रेरी में सही एवं सुचारू ढंग से किताबों को ऑर्गेनाइज़ करने का तरीका बताया जाता दिखाई देता है। 
कहीं 'नदिया के पार' फ़िल्म के केशव प्रसाद मौर्य के उपन्यास 'कोहबर की शर्त' पर बेस्ड होने की बात होती नज़र आती है तो कहीं विवाह पश्चात पति-पत्नी द्वारा बराबर की ज़िम्मेदारी निभाए जाने की बात होती नज़र आती है। कहीं खाने की कद्र करने को लेकर भोजन की महत्ता का जिक्र होता नज़र आता है तो कहीं बिना किसी ताम झाम या दिखावे के विवाह करने की बात होती दिखाई देती है। 
इसी उपन्यास में कहीं प्यार भरी चुहल से तो कहीं मीठी शरारतों से पाठक रु-ब-रु होते दिखाई देते हैं।
कहीं स्त्रियों द्वारा शॉपिंग इत्यादि में ज़्यादा समय लगाए जाने की बात को हल्के-फुल्के अंदाज़ में कहा जाता दिखाई देता है तो कहीं लड़कों को भी घर के काम आने चाहिए, की बात पर बल दिया जाता दिखाई देता है। कहीं स्त्रियों की शिक्षा एवं उनके स्वावलंबी होने की आवश्यकता पर बल दिया जाता दिखाई देता है तो कहीं बच्चों में थोड़ा डर बना कर रखने की बात होती दिखाई पड़ती है।
■ उपन्यास को पढ़ते वक्त मुझे इसमें 'कौन बनेगा करोड़पति' वाले दृश्य के साथ-साथ ईशाना और सागर के विवाह का प्रसंग भी कुछ ज़्यादा लंबा और जबरन खिंचा हुआ लगा। जिन्हें संक्षिप्त किया जाता तो बेहतर होता। साथ ही इस उपन्यास में तथ्यात्मक ग़लती के रूप में मुझे  पेज नम्बर 12 में लिखा दिखाई दिया कि..
'समस्या यह है कि कार्यक्रम की सारी टिकट बिक चुकी हैं। अब बस एक ही सीट बची है आखिरी पंक्ति की वही आखिरी सीट जो आप हमेशा रिजर्व करवा कर रखती हैं।'
कहानी के हिसाब से यहाँ कहानी की नायिका की किताब के विमोचन के कार्यक्रम की टिकटों के बिकने की बात हो रही है। जबकि असल में ऐसा होता नहीं है। किताबों के विमोचन इत्यादि में तो श्रोताओं को आग्रह अथवा निवेदन करके विनम्रतापूर्वक बुलाना पड़ता है। 
इसके बाद पेज नंबर 95-96 में लिखा दिखाई दिया कि..
'शानदार गाड़ी में बैठकर हम शानदार होटल में पहुँचे। पहली बार इस होटल में मैंने ऑटोमेटिक दरवाजा भी देखा और फिर होटल के उस कमरे में मैंने पहली बार इतना छोटा फ्रिज भी देखा जिसमें सिर्फ पानी की बोतलें रखी हुई थीं'
यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि बड़े होटलों के कमरे में जो फ्रिज रखे हुए होते हैं, उनमें पानी की नहीं बल्कि कोल्डड्रिंक और बीयर इत्यादि रखी हुई होती हैं। जिन्हें इस्तेमाल करने पर उनकी कीमत अलग से चुकानी पड़ती है। पानी की कॉम्प्लीमेंट्री दो बोतलें तो अलग से दी जाती हैं। 
■ बेहद सावधानी के साथ की गई इस किताब की प्रूफरीडिंग के बावजूद मुझे दो-चार जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त कुछ प्रिंटिंग मिस्टेक्स दिखाई दीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 38 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वी भी बिल्कुल तरोताजा होकर, नींद भरी हुई आँखों से नहीं'
यहाँ 'वी भी बिल्कुल तरोताजा होकर' की जगह 'वो भी बिल्कुल तरोताजा होकर' आएगा। 
◆ पेज नंबर 49 में लिखा दिखाई दिया कि..
'यह केक-वेक काटना पता नहीं क्यों, से यह अजीब लगता है मुझे'
यहाँ 'यह केक-वेक काटना पता नहीं क्यों, से यह अजीब लगता है मुझे' की जगह 'यह केक-वेक काटना पता नहीं क्यों, शुरू से ही अजीब लगता है मुझे' आना चाहिए।
◆ पेज नंबर 58 में लिखा दिखाई दिया कि..
'ऐसी मान्यता थी कि इस मंदिर में जो शिवलिंग विराजमान है वह धरती के अंदर से प्रकट हुअ था'
यहाँ 'वह धरती के अंदर से प्रकट हुअ था' की जगह 'वह धरती के अंदर से प्रकट हुआ था' आएगा। 
◆ पेज नंबर 75 में लिखा दिखाई दिया कि..
'अब तो न उसे गाहे-बगाहे छत पर मिलने वाली सागर की झलक का सहारा था, न जब चाहे तब उसे फोन कर लेने का और ना ही साहस करके कुछ मिनट में सागर के घर ही चले जाने का आसरा था अब'
इस वाक्य के शुरू और अंत में 'अब' शब्द आया है जबकि बाद वाले 'अब' शब्द की यहाँ ज़रूरत ही नहीं है।
◆ पेज नंबर 186 में लिखा दिखाई दिया कि..
'सागर ने नीलू से कहा तब उसनं ईशाना के का हाथ उसके हाथ में देते हुए कहा'
यहाँ 'उसनं ईशाना के का हाथ उसके हाथ में देते हुए कहा' की जगह 'उसने ईशाना के का हाथ उसके हाथ में देते हुए कहा' आएगा।
◆ पेज नंबर 126 में लिखा दिखाई दिया कि..
'हाँ तो मैंने कोई चोरी थोड़े ही की है जो सबसे छिपता फिरूँ'
दृश्य के हिसाब से यहाँ 'छिपता फिरूँ' की जगह अगर 'छिपाता फिरूँ' आए तो बेहतर। 
◆ पेज नंबर 166 में लिखा दिखाई दिया कि..
'हो सकता है कि अब तक शायद तुम्हारा गुस्सा शांत हो गया होगा और तुम मेरे घर मेरे बारे में पता करने गई होगी, लेकिन जब माँ ने कहा कि तुम नहीं आईं तब मुझे बहुत धक्का पहुँचा'
कहानी में चल रही परिस्थिति के हिसाब से मुझे यह वाक्य सही नहीं लगा। सही वाक्य इस प्रकार होना चाहिए था कि..
'हो सकता था कि तब तक शायद तुम्हारा गुस्सा शांत हो गया होता और तुम मेरे घर मेरे बारे में पता करने गई होती, लेकिन जब माँ ने कहा कि तुम नहीं आईं तब मुझे बहुत धक्का पहुँचा'
◆ पेज नंबर 170 में लिखा दिखाई दिया कि..
'वो दोनों खामोश से बस एक-दूसरे के एहसास को महसूस कर रहे थे'
यहाँ 'वो दोनों खामोश से बस एक-दूसरे के एहसास को महसूस कर रहे थे' की जगह अगर 'वो दोनों खामोशी से बस एक-दूसरे के एहसास को महसूस कर रहे थे' आए तो बेहतर। 
अंत में चलते-चलते एक और बात कि पेज नंबर 52 में मुझे लिखा दिखाई दिया कि..
'ईशाना ने सागर से उसके हँसने का कारण पूछा तो उसने अपनी उँगली से उसके होठों के पास लगा हुआ चीज हटाकर उसे दिखा दिया'
यहाँ 'चीज हटाकर उसे दिखा दिया' की जगह 'चीज़ हटाकर उसे दिखा दिया' आना चाहिए क्योंकि 'चीज/चीज़' का भारतीय भाषा में प्रयोग किसी वस्तु के लिए किया जाता है जबकि यहाँ बात अँग्रेज़ी वाले cheese (एक तरह का पनीर) की हो रही है। अतः इसे स्पष्ट किया जाता तो बेहतर होता। 
• पराठे - परांठे
• चीज - चीज़ (Cheese) 
• कुनकुनी दोपहर - गुनगुनी दोपहर
• बरात - बारात 
यूँ तो पठनीय सामग्री से लैस यह रोचक उपन्यास मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहारस्वरूप प्राप्त हुआ मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि 245 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सुरभि प्रकाशन (किताबघर प्रकाशन समूह का उपक्रम) ने और इसका मूल्य रखा है 400/- रुपए जो कि मुझे क्वालिटी, कंटैंट तथा हिंदी पाठकों की जेब के हिसाब से ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

मुंबई नाइट्स - संजीव पालीवाल

थ्रिलर, मिस्ट्री और क्राइम बेस्ड फ़िल्मों, कहानियों एवं उपन्यासों का मैं शुरू से ही दीवाना रहा। एक तरफ़ ज्वैल थीफ़, गुमनाम, विक्टोरिया नम्बर 203 या फ़िर ऑक्टोपुसी जैसी देसी एवं विदेशी फ़िल्मों ने मन को लुभाया तो दूसरी तरफ़ वेद प्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों के रोमांच ने मुझे कहीं किसी और दिशा में फटकने न दिया। 


बरसों बाद जब फ़िर से पढ़ना शुरू हुआ तो थ्रिलर उपन्यासों के बेताज बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक की लेखनी ने इस हद तक मोहित किया कि मैं पिछले लगभग 4 सालों में उनके लिखे 225 से

ज़्यादा उपन्यास पढ़ चुका हूँ और निरंतर उनका लिखा बिना किसी नागे के पढ़ रहा हूँ। 


दोस्तों... आज थ्रिलर फ़िल्मों और कहानियों की बातें इसलिए कि आज मैं यहाँ इसी तरह के विषय से संबंधित एक ऐसे उपन्यास का जिक्र करने जा रहा हूँ, 

जिसे 'मुंबई नाइट्स' के नाम से लिखा है संजीव पालीवाल ने। संजीव पालीवाल अब तक तीन हिट उपन्यास लिख चुके हैं। जिनमें से पहले दो उपन्यास थ्रिलर बेस्ड और एक उपन्यास प्रेम कहानी के रूप में है। 


मुंबई फ़िल्मनगरी की रंगीन दुनिया के काले सच को उजागर करती इस तेज़ रफ़्तार कहानी में एक तरफ़ बड़े फ़िल्म स्टार रोहित शंकर सिंह द्वारा ख़ुदकुशी किए जाने के केस की जाँच को लेकर कॉलेज में पढ़ने वाली एक ग़रीब मगर खूबसूरत लड़की दिल्ली के अय्याश तबियत जासूस विशाल सारस्वत की सेवाएँ हायर करती है। तो दूसरी तरफ़ शक के घेरे में आयी रोहित की प्रेमिका अनामिका त्रिपाठी भी इसी केस की निष्पक्ष जाँच के लिए, कभी विशाल सारस्वत की माशूका रह चुकी, मुंबई की जासूस अमीना शेख़ को नियुक्त करती है। 


आपसी मतभेदों के बावजूद ये दोनों इस केस पर एकसाथ काम करने के लिए तैयार होते हैं और संयुक्त रूप से की गई इनकी जाँच के दौरान शक के छींटे जब फ़िल्म एवं राजनीति से जुड़ी कुछ ताकतवर हस्तियों पर पड़ते हैं तो एक के बाद एक सिलसिलेवार हत्याएँ एवं जानलेवा हमले होते चले जाते हैं। अब देखना यह है कि हत्याओं के इस जानलेवा सिलसिले के बीच अंततः वे मुजरिम को उसके अंजाम तक पहुँचा पाते हैं या नहीं। 


इस उपन्यास में कहीं कास्टिंग एजेंसीज़ के बाहर रोज़ाना फिल्मों में नाम कमाने के इच्छुक सैंकड़ों लड़के-लड़कियों की लाइन लगने की बात होती नज़र आती है तो कहीं कास्टिंग डायरेक्टर को पटा फिल्में हथियाने की कवायद में खूबसूरत लड़कियाँ मोहरा बन यहाँ-वहाँ दिखाई देती हैं। कहीं हीरोइन बनने की चाह में मुंबई में आई खूबसूरत नवयुवतियां काम न मिलने पर स्वेच्छा अथवा मजबूरी में अपनी देह बेचती दिखाई पड़ती हैं।


इसी उपन्यास में कहीं एशिया की सबसे बड़ी स्लम बस्ती 'धारावी' के निर्माण के बारे में पता चलता है कि 1895 में पहले पहल अँग्रेज़ सरकार द्वारा ये ज़मीन चमड़े का काम करने वाले मुस्लिम और नीची जाति के लोगों को 99 साल की लीज़ पर दी गयी थी। 


इसी उपन्यास में कहीं किसी ग़रीब को धोखे में रख उसके नाम पर ऐसा गैरकानूनी धंधा चलता दिखाई देता है जिसके बारे में उसे रत्ती भर भी पता नहीं होता है। तो कहीं नारियल के पेड़ लगाने के नाम पर हासिल की गई सस्ती ज़मीन पर सरकारी मिलीभगत एवं राजनैतिक हस्तक्षेप के ज़रिए करोड़ों की कीमत वाला आलीशान नाइट क्लब चलता दिखाई देता है। कहीं लेखक अपने किरदारों के ज़रिए फिलॉसफ़िकल चिंतन करते नज़र आते हैं तो कहीं ऑर्गी सैक्स (सामूहिक सैक्स) जैसी विकृत मानसिकता से अपने पाठकों को रु-ब-रु करवाते दिखाई पड़ते हैं।


कहीं इस क्राइम थ्रिलर में राजनीति का पदार्पण होता नज़र आता है तो कहीं राजनीति और पुलिस के गठजोड़ का घिनौना चेहरा उजागर होता दिखाई देता है। कहीं पुत्रमोह में पड़ कर राज्य की गृहमंत्री अपने अय्याश बेटे के काले कारनामों पर अपनी आँखें मूँदती हुई नज़र आती है तो कहीं गठबंधन की राजनीति में होने वाली दिक्कतों की बात होती दिखाई देती है। 


कहीं फर्ज़ी एनकाउंटर के केस में सज़ा से बचने के लिए कोई बड़ा अफ़सर गृहमंत्री और उसके बेटे की जी-हजूरी भरी चाकरी करता दिखाई पड़ता है। तो कहीं तफ़्तीश के नाम पर स्वयं पुलिसवाले ही सबूत नष्ट, ग़ायब अथवा फर्ज़ी सबूत गढ़ते दृष्टिगोचर होते हैं। कहीं बड़े ब्यूरोक्रेट्स से लेकर नेता, सांसद और धनाढ्य वर्ग के तथाकथित नामी गिरामी शरीफ़ लोग अपनी अय्याशियों के लिए मुंबई नाइट्स जैसी आलीशान और भव्य जगह का धड़ल्ले से बेहिचक इस्तेमाल करते दिखाई देते हैं। तो कहीं हिडन एवं स्पाई कैमरे के ज़रिए ब्लैकमेल का खेल जाता नज़र आता है। 


■ पेज नंबर 149 में लिखा दिखाई दिया कि..


'इसकी वजह शायद यह भी थी कि विशाल भी वैसे हालातों से दो चार हो चुका था' 


इसके बाद पेज नंबर 151 में लिखा दिखाई दिया कि..


'इन हालातों में पुलिस को चिंता हुई बेटे की'


और आगे बढ़ने पर पेज नंबर 156 में लिखा दिखाई दिया कि..


'जब अदालत उसे पिछले केस में असली नाम पर सजा ना सुन सकी, तो कुणाल वाधवा का अब के हालातों में जहां सबूत भी हमारे पक्ष में नहीं हैं, क्या कर सकती है' 


यहाँ यह बात ग़ौरतलब है कि इन तीनों उदाहरणों में एक कॉमन शब्द 'हालातों' का इस्तेमाल किया गया है जबकि असलियत में ऐसा कोई शब्द होता ही नहीं है। 'हालत' शब्द का बहुवचन 'हालात' शब्द होता है। इसलिए इन तीनों जगहों पर 'हालातों' की जगह 'हालात' आना चाहिए।


■ धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस रोचक उपन्यास में पढ़ते वक्त कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमियाँ एवं वर्तनी की त्रुटियाँ भी देखने को मिलीं। उदाहरण के तौर पर पेज नंबर 16 में लिखा दिखाई दिया कि..


'मुझे यही जानना है कि किस हालात में उसने यह फैसला किया'


यहाँ 'किस हालात में' की जगह 'किन हालात में' आना चाहिए।


पेज नंबर 20 में लिखा दिखाई दिया कि..


'मेरे आने के बाद एक हफ्ते में आखिर ऐसा क्या हुआ जो वह फांसी के फंदे पर झूल गया'


कहानी के हिसाब से यहाँ 'मेरे आने के बाद एक हफ्ते में' की जगह 'मेरे जाने के बाद एक हफ्ते में' आना चाहिए।


पेज नंबर 62 में लिखा दिखाई दिया कि..


'अमीना ने रुख किया आराम नगर का। वर्सोवा का आराम नगर एक ऐसा इलाका जहां गली-गली में एक्टर रहते हैं। यहां हर रोज कास्टिंग एजेंसी के बाहर लाइन लगी रहती है। यहां दिन भर एक्टर बनने की ख्वाहिश लिए लड़के और लड़कियां एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे पर सिर्फ यह जानने के लिए भटकते रहते हैं कि वहां ऑडिशन हो रहा है क्या।'


इससे अगले पेज यानी कि पेज नंबर 63 पर लिखा दिखाई दिया कि..


'आराम नगर की गलियों में सिल्वर कास्टिंग एजेंसी का ऑफिस खोजने में ज्यादा देर नहीं लगी। पिछले 10 सालों में यहां कास्टिंग एजेंसियों की संख्या काफी बढ़ गई है'


इन दो पैराग्राफ़स को पढ़ कर पता चलता है कि वर्सोवा के आराम नगर इलाके में कास्टिंग एजेंसियों के काफ़ी दफ़्तर खुले हुए हैं जबकि पहले पैराग्राफ के शुरू में बताया गया है कि वर्सोवा के आराम नगर इलाके की गली-गली में एक्टर रहते हैं। कायदे से यहाँ एक्टरों के रहने की बजाय कास्टिंग एजेंसियों के दफ़्तरों के होने की ही बात आनी चाहिए थी।


पेज नंबर 81 में दिखा दिखाई दिया कि..


'कहां से चले थे कहा आ गये'


यहाँ 'कहा आ गये' की जगह 'कहां आ गये' आएगा। 


पेज नंबर 83 में लिखा दिखाई दिया कि..


'विशाल ने देखा कि कुणाल वाधवा एक कोने कुछ लोगों के साथ खड़ा है'


यहाँ 'एक कोने कुछ लोगों के साथ खड़ा है' की जगह 'एक कोने में कुछ लोगों के साथ खड़ा है' आएगा। 


पेज नंबर 94 में लिखा दिखाई दिया कि..


'लेकिन मनीष मेहरा तो पिछले वीकेंड तो वह नहीं गया था'


यहाँ 'मनीष मेहरा तो पिछले वीकेंड तो वह नहीं गया था' की जगह 'मनीष मेहरा तो पिछले वीकेंड में नहीं गया था' आएगा। 


पेज नंबर 115 में लिखा दिखाई दिया कि..


'वह यह जानते हैं कि तुम्हारा और रोहित शेखर का झगड़ा हुआ था'


यहाँ पहले शब्द 'वह' के ज़रिए विशाल और अमीना की बात हो रही है जो कि एक नहीं बल्कि दो अलग-अलग शख़्सियत हैं। इसलिए यहाँ उनके लिए 'वह' शब्द का नहीं बल्कि 'वे' शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए। सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..


'वे यह जानते हैं कि तुम्हारा और रोहित शेखर का झगड़ा हुआ था'


पेज नंबर 126 में लिखा दिखाई दिया कि..


'लड़की देखने में एकदम बच्ची जैसी ही होगा'


यहाँ 'बच्ची जैसी ही होगा' की जगह 'बच्ची जैसी ही होगी' आएगा। 


पेज नंबर 149 में लिखा दिखाई दिया कि..


'सेना में रहने के दौरान अपने भी तो कई ऑपरेशन में भाग लिया होगा'


यहाँ 'कई ऑपरेशन में भाग लिया होगा' की जगह 'कई ऑपरेशनों में भाग लिया होगा' आएगा।


इसी पेज पर और आगे दिखा दिखाई दिया कि..


'हर हत्या अपना दाग छोड़ती है, और थोड़ा सा जीवन अपने साथ ले जाती है। भले ही जिसकी हत्या हुई है वह शख्स क्यों ना आपकी ही जान लेने की कोशिश में आत्मरक्षा में मारा गया हो'


इन वाक्यों में दूसरा वाक्य सही नहीं बना। सही वाक्य कुछ इस तरह का होना चाहिए कि..


'भले ही आपकी जान लेने की कोशिश करने वाला कोई शख़्स आपके द्वारा किए गए अपनी आत्मरक्षा के प्रयासों के तहत स्वयं मारा गया हो'


पेज नंबर 155 में लिखा दिखाई दिया कि..


'अमीना ने सिर से अपने हाथ हटाया'


यहाँ 'अमीना ने सिर से अपने हाथ हटाया' की जगह 


'अमीना ने अपने सिर से हाथ हटाया' या फ़िर 'अमीना ने सिर से अपना हाथ हटाया' आए तो बेहतर। 


पेज नंबर 170 में लिखा दिखाई दिया कि..


'विशाल ने आगे बढ़कर देखा तो वहा एक छोटा सा कमरा बना हुआ है'


यहाँ 'वहा' की जगह 'वहां' आएगा। 


पेज नंबर 186 में लिखा दिखाई दिया कि..


'ये लिस्ट है उन सारे एंडोर्समेंट की यानी विज्ञापन की जो रोहित शेखर सिंह ने किए हैं'


यहाँ चूंकि विज्ञापन एक से ज़्यादा हैं, इसलिए यहाँ 'एंडोर्समेंट' की जगह 'एंडोर्समेंट्स' और 'विज्ञापन' की जगह 'विज्ञापनों' आएगा। 


पेज नंबर 190 में लिखा दिखाई दिया कि..


'एक बार भी उसे ये पता नहीं चला की अपहरण करने वाले क्या चाहते हैं' 


यहाँ 'पता नहीं चला की' में 'की' शब्द की जगह 'कि'

आएगा। 


पेज नंबर 194 में लिखा दिखाई दिया कि..


'कई फैसले ऐसे होते हैं जिसके नतीजे में हम दुनिया का संवारना और बिखरना एक साथ देखते हैं'


यहाँ चूंकि एक से अधिक फ़ैसलों की बात हो रही है, उसलिए यहाँ 'जिसके नतीजे में हम दुनिया का संवारना और बिखरना एक साथ देखते हैं' की जगह 'जिनके नतीजे में हम दुनिया का संवारना और बिखरना एक साथ देखते हैं' आएगा। 


• बामारी - बीमारी

• जनम - जन्म 

• सक्रिप्ट - स्क्रिप्ट

• प्राइवेसी ब्रिच - प्राइवेसी ब्रीच

• कहा - कहाँ

• नीचि - नीची

• कव्वालिटी - क्वालिटी

• मारजिन - मार्जिन

• पहुंतने - पहुँचने/पहुंचने

• तव्वजुह - तवज्जो 

• आई एस सॉरी - आई एम सॉरी 

• लिखायी - लिखाई 

• वहा - वहाँ/वहां

• बहशीपन - वहशीपन

• बैगर - बग़ैर



बढ़िया क्वालिटी में छपे इस 200 पृष्ठीय तेज़ रफ़्तार रोचक उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली ने और इसका मूल्य रखा गया है 299/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

 
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